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शुक्रवार, 15 मई 2020
गुरुवार, 14 मई 2020
बुधवार, 13 मई 2020
रविवार, 15 सितंबर 2019
Azaan | Meanings
अगर आप यह जानना चाहते हैं कि चौबीस घंटों में पांच बार मस्जिदों से आने वाली आवाज़ों के सही शब्द क्या हैं और उनका क्या अर्थ है, तो सही और सटीक जानकारी के लिए इस विडियो को देखें :
https://youtu.be/M9r1PbwCpqo
https://youtu.be/M9r1PbwCpqo
सोमवार, 27 मार्च 2017
Ghazal | Urdu Shayari | Apni Palkon pe Koi Khwaab
Ghazal | Urdu Shayari | Apni Palkon pe Koi Khwaab
My latest ghazal published in 27/3/2016 issue of INQUILAB daily:
अपनी पल्कों पे कोई ख़्वाब सजा कर देखो
दिल में उम्मीद की इक शम्मा जला कर देखो
इस अंधेरे में भी हर सम्त उजाला होगा
अपने रुख़ से जरा चिलमन को हटा कर देख़ो
अपनी तस्वीर लगी पाओगे इक गोशे में
दिल की महफ़िल में अगर आज भी आ कर देखो
दिल पे जो बोझ है, कम उस को अगर करना है
हाले-दिल तुम किसी अपने को सुना कर देखो
दोस्तों से तो सभी खुल के मिला करते हैं
दुश्मनों को गले इक बार लगा कर देखो
अब तो नग़मों से भी तूफ़ान बपा होते हैं
गीत जोशीला कोई तुम भी तो गा कर देखो
राह फूलों से भरी तुम को मिलेगी 'शमसी'
ग़ैर की राह से कांटों को हटा कर देखो ।
---मुईन शमसी
रविवार, 12 जुलाई 2015
Ramzan Vidaai Song | Ramzaan Ja Riya Haiga
Ramzan Vidaai Song | Ramzaan Ja Riya Haiga
रमज़ान जारिया हैगा
उर्दू का हर कलन्डर, हमको बतारिया हैगा
रमज़ान जारिया हैगा, रमज़ान जारिया हैगा
ईदी मिलेगी तगड़ी, कपड़े बनंगे नै-नै
बच्चों का दिल हलक़ से, बाहरकू आरिया हैगा
जिसने रखे ना रोज़े, और ना पढ़ी तरावीह
वो भी फुदक-फुदक के, ख़ुशियां मनारिया हैगा
कुर्ता तो सिल गिया है, पर ना सिला पजामा
दर्ज़ी भी आज देखो, नख़रे दिखारिया हैगा
अफ़्तार जम के ठूंसा, सहरी दबाके पेली
अब दस किलो सिवईंयें, हर पेटू लारिया हैगा
देदे ज़कात बन्दे, नादार मुस्तहिक़ को
मिस्कीन-बे-कसों का, हक़ क्यूं दबारिया हैगा
तैयारी ईद की अब, तू भी तो कर ले ’शम्सी’
अशआर बेतुके ये, काएकू सुनारिया हैगा
---मुईन शम्सी
रविवार, 14 अक्टूबर 2012
अब्र-ए-रहमत (Abr-e-rahmat) ('गर्भनाल' पत्रिका के अक्तूबर २०१२ अंक में प्रकाशित)
अब्र-ए-रहमत तू झूम-झूम के आ
आसमानों को चूम-चूम के आ
कब से सूखी पड़ी है यह धरती
प्यास अब तो तू इसकी आ के बुझा
खेत-खलिहान तर-ब-तर होंगे
अपनी बूंदें अगर तू देगा गिरा
बूंद बन जाएगी खरा मोती
सीप मुंह अपना गर रखेगी खुला
फ़स्ल ’शमसी’ की लहलहाएगी
फिर न शिकवा कोई, न कोई गिला ।
---मुईन शमसी
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Abr-e-rahmat tu jhoom-jhoom ke aa
aasmaano ko choom-choom ke aa
kab se sookhi padi hai ye dharti
pyaas ab to tu iski aa ke bujha
khet-khalihaan tar-ba-tar honge
apni boondeN agar tu dega gira
boond ban jaaegi khara moti
seep munh apna gar rakhegi khula
fasl 'shamsi' ki lehlahaaegi
phir na shikwa koi, na koi gila.
---Moin Shamsi
रविवार, 7 अक्टूबर 2012
"गर्भनाल" पत्रिका के अक्टूबर २०१२ अंक में प्रकाशित ग़ज़ल : लम्स
याद मुझे अक्सर आता है लम्स तुम्हारे होटों का
ख़्वाब में आकर तड़पाता है लम्स तुम्हारे होटों का
यादें धुंधला चुकी हैं यों तो साथ गुज़ारे लम्हों की
साफ़ है रोज़-ए-रौशन सा वो लम्स तुम्हारे होटों का
कोशिश सदहा की पर लम्हे भर को भी ना भूल सके
दिल पे यों हो गया है चस्पां लम्स तुम्हारे होटों का
जाम तुम्हारी नज़रों से दिन-रात पिया करते थे हम
लेकिन बस इक बार मिला वो लम्स तुम्हारे होटों का
जुदा हुए थे जब तुम हसरत तब से ये है ’शमसी’ की
काश दुबारा मिल जाए वो लम्स तुम्हारे होटों का ।
---मुईन शमसी
शब्दार्थ :
लम्स = स्पर्श
होटों = होठों
रोज़-ए-रौशन = उजाले से भरा दिन
सदहा = सौ बार
चस्पां = चिपक जाना
हसरत = अभिलाषा
सोमवार, 20 अगस्त 2012
My ghazal published in "SAHAAFAT" daily on 25.3.2012
उनसे मिलकर ये बात पूछूंगा Unse milkar ye baat poochhoonga
कैसे पाऊं निशात पूछूंगा Kaise paaun nishaat poochhoonga
मेरी बीनाई तो सलामत है Meri beenaai to salaamat hai
दिन क्यों लगता है रात पूछूंगा Din kyu lagta hai raat poochhoonga
ईद तो कब की हो चुकी मेरी Eid to kab ki ho chuki meri
कब है शब्बे-बरात पूछूंगा Kab hai shabbe-baraat poochhoonga
मैं हूं नज़रों के जाम पर ज़िंदा Main hu nazron ke jaam par zinda
क्या है आबे-हयात पूछूंगा Kya hai aabe-hayaat poochhoonga
जब से बिछड़ा हूं उन से सूनी सी jab se bichhda hu unse sooni si
क्यों लगे कायनात पूछूंगा Kyu lage kaaynaat poochhoonga
हुस्न के अपने इस ख़ज़ाने की Husn ke apne is khazaane ki
क्यों न देते ज़कात पूछूंगा Kyu na dete zakaat poochhoonga
बाज़ी-ए-आशिक़ी में ’शमसी’ को Baazi-e-ashiqi me 'shamsi' ko
क्यों हुई है ये मात पूछूंगा । kyu hui hai ye maat poochhoonga.
---मुईन शमसी ---Moin Shamsi
रविवार, 4 मार्च 2012
स्कूटरिस्ट से बाइकर (published in SUNDAY NAI DUNIA (4-10 March 2012)
’फ़ाइट-ए-ट्रैफ़िक’ के हम परफ़ैक्ट फ़ाइटर हो गए
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
दस बरस तक हमने ’इस्कूटर’ पे जम के सैर की
इक दफ़ा टक्कर भी खाई, रब ने लेकिन ख़ैर की
गिर रहे थे जब, लगा यूं ’हम तो ग्लाइडर हो गए’
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
"है छिछोरों का ये वाहन" कहते हम बाइक को थे
"हम-से सज्जन तो ’सकूटर’ पे ही लगते हैं भले"
किन्तु बदली सोच, पैशन-प्रो के रायडर हो गए
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
दोस्त कहते थे "मियां, तुम हो बड़े ही बैकवर्ड
ले लो बाइक, छोड़ो ’इस्कूटर’, बनो कुछ फ़ॉरवर्ड"
बात उनकी मान ली, ’वाइज़’ से ’वाइज़र’ हो गए
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
बनके भीगी बिल्ली पहले रोड पे चलते थे हम
जब झुका कर मारते किक, तो बड़ी आती शरम
शान से अब दनदनाते हैं कि टाइगर हो गए
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
है तुम्हारे पास ’इस्कूटर’ अभी तक, तो सुनो
बेच दो, वो है खटारा,कोई भी बाइक चुनो
ख़र्च कर लो नोट कुछ, क्यों इतने माइज़र हो गए
पहले थे ’इस्कूटरिस्ट’, अब हम भी ’बाइकर’ हो गए
---मुईन शमसी
सोमवार, 30 जनवरी 2012
ग़ज़ल : होना चाहिये (Ghazal : Hona Chahiye)(published in urdu daily INQUILAAB in January 2012)
तीर नज़रों का जिगर के पार होना चाहिये
इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिये
यह दिलों का मैल तो इक लम्हे में हट जाएगा
सद्क़ दिल से बस कोई गुफ़्तार होना चाहिये
तैर तो लूंगा ही मैं और पार भी हो जाऊंगा
हां मगर दरिया में इक मंझधार होना चाहिये
आज खेला है जो अस्मत से किसी मासूम की
वो भरे बाज़ार में संगसार होना चाहिये
जो तुम्हारे दोस्त हैं, मुख़लिस हैं और हमदर्द हैं
उन सभी का तुम को भी ग़मख़्वार होना चाहिये
जिंस, मज़हब, ज़ात, फ़िरक़ा, क़ौम से ऊपर उठो
तुम को बस इंसानियत से प्यार होना चाहिये
इन झुकी नज़रों ने ’शमसी’ बात जो तस्लीम की
उसका अब होंटों से भी इक़रार होना चाहिये ।
---मुईन शमसी
Teer nazron ka jigar ke paar hona chahiye
ishq hai to ishq ka izhar hona chahiye
ye dilon ka mail to ik lamhe me hat jaayega
sadq dil se bas koi guftaar hona chahiye
tair to loonga hi main aur paar bhi ho jaaunga
haan magar dariya me ik manjhdhar hona chahiye
aaj khela hai jo asmat se kisi maasoom ki
wo bharey baazaar me sangsaar hona chahiye
jo tumhare dost hain, mukhlis hain aur hamdard hain
un sabhi ka tum ko bhi ghamkhwar hona chahiye
jins, mazhab, zaat, firqa, qaum se oopar utho
tum ko bas insaniyat se pyar hona chahiye
in jhuki nazron ne 'shamsi' baat jo tasleem ki
uska ab honton se bhi iqrar hona chahiye.
---Moin Shamsi
सोमवार, 26 दिसंबर 2011
सबसे बड़ा अक़्लमंद (All Rights Are Reserved)
इक दफ़ा की बात है इक बादशाह ने सोचा ये
है अक़लमंद कौन सबसे ज़्यादा मेरे मुल्क में
पहले उसने आज़माए अपने दरबारी सभी
ना मगर उसको तसल्ली इस ज़रा-सी भी हुई
कर लिया उसने तलब अपने वज़ीर-ए-ख़ास को
"जो अक़लमंद सबसे हो, उस शख़्स को हाज़िर करो
कल तलक गर शख़्स ऐसा इक भी तुम ना ला सके
डाल देंगे क़ैदख़ाने के अंधेरों में तुम्हें"
हिल गया सुन कर वज़ीर इस बे-रहम फ़रमान को
’क्यूं ना पिटवाऊं ढिंढोरा और बचाऊं जान को’
हो गया ऐलान हर-सू तीन आए नौजवां
"मैं अक़लमंद सबसे ज़्यादा" तीनों ने दावा किया
सुनके उनकी बात उलझन में वज़ीर-ए-ख़ास था
’कौन है तीनों में आख़िर, अक़्लमंद सबसे बड़ा
किसको मैं सुलतान के दरबार में हाज़िर करूं
उफ़ ख़ुदा ! किस पे ये उलझन अपनी मैं ज़ाहिर करूं ?’
थी वज़ीर-ए-ख़ास की इक बेटी सत्रह साल की
अक़्लमंदी और समझदारी से मालामाल थी
देख वालिद को परीशां, उसने पूछा, "बात क्या ?"
कह सुनाया बाप ने बेटी को जो था माजरा
सुन के सारी बात बेटी सोच में कुछ पड़ गई
फिर यकायक कह उठी, "तरकीब मुझको मिल गई"
कह के ये फिर कह सुनाई उसने जो तरकीब थी
बाप के चेहरे पे रक़्सां हो गई फिर इक ख़ुशी
अगले दिन बोला वज़ीर उन नौजवानों से, "सुनो !
इम्तिहां देना पड़ेगा अक़्ल का तुम तीनों को
बंद इक कमरे में हम तुम तीनों को करते हैं आज
और रहेगा कमरे के दरवाज़े पे ताले का राज
जो बिना दरवाज़ा तोड़े, बाहर आ के दे दिखा
उसको ही मानेंगे अब हम अक़्लमंद सबसे बड़ा"
हो गए कमरे में बंद वो सोचते बस ये रहे
’कैसे बाहर आ कर ख़ुद को अक़्लमंद साबित करें’
पहले ने सोचा बहुत, लेकिन न सूझा कुछ उसे
दूसरे की भी समझ में कुछ न आया क्या करे
दोनों काफ़ी देर तक बस सोचते बैठे रहे
’है नहीं मुमकिन निकलना’ ख़ुद से ही कहते रहे
तीसरे को सूझा कुछ, झट-से खड़ा वो हो गया
जा के दरवाज़े को उसने ज़ोर का धक्का दिया
खुल गया दरवाज़ा, दोनों शख़्स ही हैरान थे
तीसरे की अक़्लमंदी से बड़े परेशान थे
मिल गया उलझन का अपनी हल वज़ीर-ए-ख़ास को
चल पड़ा ले कर जवां को बादशाह के पास वो
जा के उसने कह सुनाया बादशाह को माजरा
सुन के सारी बात बेहद ख़ुश हुए आलम-पनाह
हीरों का इक हार था उनके गले में जो पड़ा
हो के ख़ुश अपने वज़ीर-ए-ख़ास को वो दे दिया
उस अक़लमंद शख़्स से सुल्तान ने फिर यह कहा
"आज इस दरबार में हमने तुम्हें दे दी जगह"
शाह के दरबार में ओहदा जवां को मिल गया
अक़्ल का इनआम पा के चेहरा उसका खिल गया
सच कहा है ये किसी ने "आए जब मुश्किल कोई
अक़्ल से तुम काम ले लो, जाग उठे क़िस्मत सोई ।"
बुधवार, 2 नवंबर 2011
"इंडिया-न्यूज़" मैगज़ीन (21.10.2011) में प्रकाशित मेरी एक और ग़ज़ल
दिल के बिल्कुल क़रीब होते हैं,
वो जो सच्चे हबीब होते हैं
आपका साथ जिनको मिल जाए,
वो बहुत ख़ुशनसीब होते हैं
मौत से वो डरा नहीं करते,
आप जिनके तबीब होते हैं
अपनी परवाज़ भूल जाते हैं,
क़ैद जो अंदलीब होते हैं
मौत को ज़िंदगी बनाते हैं,
ऐसे भी कुछ सलीब होते हैं
क़द्र मां-बाप की नहीं करते,
वो बड़े बद-नसीब होते हैं
दौलत-ए-दिल जिन्हें मयस्सर हो,
वो कहां फिर ग़रीब होते हैं
बा-इरादा जो हार जाते हैं,
ख़ूब क्या वो रक़ीब होते हैं
छोड़ दे शायरी तू ऐ ’शमसी’,
शेर तेरे अजीब होते हैं ।
---मुईन शमसी
Word-meanings : Habeeb=Dost, Tabeeb=Doctor, Parwaaz= Udaan, Andaleeb=Bulbul, Saleeb=Sooli, Mayassar=Uplabdh, Baa-irada=Jaanboojh kar, Raqeeb=Pratidwandwi.
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Dil ke bilkul qareeb hote hain,
wo jo sachche habeeb hote hain
aapka saath jinko mil jaaye,
wo bahut khush-naseeb hote hain
maut se wo daraa nahi karte,
aap jinke tabeeb hote hain
apni parwaaz bhool jaate hain,
qaid jo andaleeb hote hain
maut ko zindagi banaate hain,
aise bhi kuchh saleeb hote hain
qadr maa-baap ki nahi karte,
wo badey bad-naseeb hote hain
daulat-e-dil jnhe mayassar ho,
wo kahaan phir ghareeb hote hain
baa-iraada jo haar jaate hain,
khoob kya wo raqeeb hote hain
chhod de shaayari tu aiy 'shamsi',
sher tere ajeeb hote hain.
---Moin Shamsi
सोमवार, 31 अक्टूबर 2011
ग़ज़ल : लो आज फिर (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Note: This ghazal has been published in the Hindi weekly magazine INDIA NEWS (21.10.2011) :
लो आज फिर मुझे उनका ख़याल आया है
हज़ार हसरतें लेकर यह साल आया है
हर-एक फूल के चेहरे पे नूर है रक़्सां
हर-इक कली पे भी रंग-ए-जमाल आया है
है चार-सिम्त ही जोशो-ख़रोश का आलम
पयाम ईद का लेकर हिलाल आया है
फिर आज घर में वो किलकारियां-सी गूंजे हैं
फिर आज घर में कोई नौनिहाल आया है
हर-इक सुबह की हुई शाम, दिन की रात हुई
हर-इक उरूज को इक दिन ज़वाल आया है
लबों से जिनके हमेशा ही गुल बरसते थे
ज़बां पे उनकी ये क्यूं इश्तिआल आया है
यह किस की याद में करते हो शायरी ’शमसी’
निगाह झुक गई जब यह सवाल आया है ।
---मुईन शमसी
शब्दार्थ: हसरतें=इच्छाएं, नूर=चमक, रक़्सां=नाच रहा, रंग-ए-जमाल=सौन्दर्य का रंग, सिम्त=ओर/दिशा, जोशो-ख़रोश=उत्साह, पयाम=संदेश, हिलाल=चांद, नौनिहाल=नन्हा शिशु, उरूज=उदय, ज़वाल=अस्त, इश्तिआल=उग्रता/भड़कना/ग़ुस्सा ।
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Ghazal : Lo aaj phir (All rights are reserved)
Lo aaj phir mujhe unka khayal aya hai
hazaar hasrateN lekar ye saal aya hai
har-ek phool ke chehre pe noor hai raqsaaN
har-ik kali pe bhi rang-e-jamaal aya hai
hai chaar-simt hi josh-o-kharosh ka aalam
payaam eid ka lekar hilaal aya hai
phir aaj ghar me wo kilkaariyaaN-si gooNje hain
phir aaj ghar me koi naunihaal aya hai
har-ik subah ki hui shaam, din ki raat hui
har-ik urooj ko ik din zawaal aya hai
laboN se jinke hamesha hi gul baraste the
zabaaN pe unki ye kyu ishtiaal aya hai
ye kis ki yaad me karte ho shaayari 'shamsi'
nigaah jhuk gayi jab ye sawaal aya hai.
---Moin Shamsi
रविवार, 11 सितंबर 2011
दो किलो चावल (मुल्ला नसरुद्दीन की एक कहानी) (सर्वाधिकार सुरक्षित)
अच्छा बच्चो, आज मुझको तुम ये बतलाओ ज़रा
नाम तुमने मुल्ला नसरुद्दीन का तो है सुना ?
एक दिन मुल्ला ने सोचा, ’आज बिरयानी पके’
बोली बीवी, "जा के चावल लाओ तुम बाज़ार से"
ले के थैला, लाने चावल, मुल्ला साहब चल दिये
दो किलो चावल ख़रीदे, घर को वापस हो लिये
रास्ते में याद आया, ’दोस्त इक बीमार है
जा के उसका हाल पूछूं, कैसा मेरा यार है
ले के थैला जाना लेकिन, ना-मुनासिब बात है
लेकिन आख़िर क्या करूं इस थैले का, जो साथ है?’
सोच में डूबे थे मुल्ला, के अचानक आया याद
’एक और पहचान वाला रहता है यां आसपास
क्यूं न थोड़ी देर को ये थैला उसके घर रखूं
दोस्त की तबियत मैं पूछूं, इस को फिर आकर मैं लूं’
सोच कर ये, मुल्ला साहब हाथ में थैला लिये
नाम था ’मतलूब’ जिसका, उसके घर को चल दिये
जब वो पहुंचे उस के घर, देखा कि इक बत्तख़ भी थी
खाना उसको देने में मसरूफ़ थे मतलूब जी
बोले मुल्ला, "ऐ मियां, इक महरबानी कीजिये
ये मेरा चावल का थैला. देर कुछ रख लीजिये"
"ठीक है" मतलूब ने कह कर, वो थैला रख लिया
लेकिन अब वो क्या करेगा, था न मुल्ला को पता
दोस्त से मिल कर जब आए मुल्ला साहब बाद में
दे दिया मतलूब ने बस ख़ाली थैला हाथ में
हो के हैरां, बोले मुल्ला "चावल इसके क्या हुए ?"
बोला ये मतलूब "इस बत्तख़ ने सब वो खा लिये"
सुन के ग़ुस्सा आ गया मुल्ला को उस बे-ईमान पे
’किस क़दर धोका किया मुझ-से शरीफ़ इंसान से
लेकिन इसको इस क़दर आसानी से बख़्शूं न मैं
ले के चावल मैं रहूंगा, जो छिपाए घर में हैं’
सोच कर ये, मुल्ला साहब ने उठाई वो बतख़
जिसको पाला था मियां मतलूब ने माहों तलक
डाल कर थैले में बत्तख़, मुल्ला जी जाने लगे
देख ये, मतलूब साहब तैश में आने लगे
चाल अपनी चलती देखी, मुल्ला जी ख़ुश हो गए
रोक कर अपनी हंसी, मतलूब से कहने लगे
"तैश में आते हो क्यूं ? बत्तख़ को घर ले जाता हूं
पेट इसका काट के कुछ देर में ले आता हूं
अपने चावल ले के वापस, पेट इसका दूंगा सिल
मुझ को मेरे चावल, और बत्तख़ तुम्हें जाएगी मिल"
देख कर हुशियारी मुल्ला की, हुआ मतलूब चुप
क्या करे क्या ना करे, उसको न सूझा और कुछ
बोला मुल्ला से "मियां, तुम एक लम्हे को रुको
तुम को चावल मैं अभी देता हूं, बस इतना करो
मेरी बत्तख़ ले न जाओ, मैंने की थी दिल्लगी
एक बत्तख़ दो किलो चावल तो खा सकती नहीं"
कह के ये मतलूब ने, चावल उन्हें लौटा दिये
ले के थैला चावलों का, मुल्ला ख़ुश-ख़ुश चल दिये
सच कहा है ये किसी ने "मुश्किलों के वक़्त तुम
अक़्ल से सोचो, न होने दो हवास-ओ-होश गुम
देखना फिर, मुश्किलें आसान सब हो जाएंगी
फिर सताने तुम को, काफ़ी दिन तलक न आएंगी"
---मुईन शमसी
बुधवार, 7 सितंबर 2011
इल्म हासिल करो (All rights are reserved)
( The audio of this song is available at : http://www.box.net/shared/2uzuf8c2utxb226jm9lb )
इल्म हासिल करो, इल्म हासिल करो,
ए मेरे दोस्तो, इल्म हासिल करो.
जिन्हों ने समझी तालीम की अहमियत,
लिखने-पढ़ने से जिनको हुई उनसियत,
आगे वो बढ़ गये, पीछे तुम रह गये,
ख़ुद को तुम और ख़ुदारा ना ग़ाफिल करो,
इल्म हासिल करो...
चल रही है तरक़्क़ी की देखो हवा,
जो भी लिख-पढ़ गया वो ही क़ाबिल बना,
बाद पछताओगे गर यूँ सोते रहे,
नींद से जागो ख़ुद को ना काहिल करो,
इल्म हासिल करो...
एक दिन आएगा तुम बनोगे बड़े,
आलिमो की सफ़ो मे रहोगे खड़े,
ख़्वाब "शम्सी" का ये क्यों ना सच हो रहे,
खुद को जानिब किताबो के माइल करो,
इल्म हासिल करो...
इल्म हासिल करो, इल्म हासिल करो,
ए मेरे दोस्तो, इल्म हासिल करो.
---Moin Shamsi
( MEANINGS:
ILM: GYAAN
TAALEEM: SHIKSHA
UNSIYAT: LAGAAV
KHUDAARA: ESSHWAR KE LIYE (FOR GOD SAKE)
GHAAFIL: ANJAAN
GAR: AGAR
KAAHIL: SUST
AALIM: VIDWAAN
SAF: PANKTI
MAAIL: AAKARSHIT )
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
Story of cinderella | सिंड्रैला की कहानी | Story in Poem | by MOIN SHAMSI
Story of cinderella | सिंड्रैला की कहानी | Story in Poem | by MOIN SHAMSI
To listen this poem visit :
इक रियासत में कभी रहती थी इक लड़की हसीं,,
थी बला की ख़ूबसूरत, ऐब उसमें इक नहीं
नाम उसका सिंड्रैला, वो बड़ी ही नेक थी,,
हुस्न के क्या कहने उसके, लाखों में वो एक थी
घर में उसकी मां भी थी और उसकी कुछ बहनें भी थीं,,
हां मगर इक बात थी, वो सब की सब सौतेली थीं
सिंड्रैला को सतातीं, उस पे करतीं ज़ुल्म थीं,,
काम घर के सब करातीं, ख़ुद वो कुछ करतीं नहीं
थी परेशां सिंड्रैला, ’उफ़’ मगर करती न थी,,
करती भी क्या आख़िर, उसका अपना था कोई नहीं
उस रियासत के शहंशाह ने किया ऐलान ये,,
"शादी शहज़ादे की होगी, हर कोई ये जान ले
ख़ूबसूरत लड़कियां इस मुल्क में हों जितनी भी,,
इक मुक़र्रर वक़्त पर दरबार में आएं सभी
अपनी दुल्हन ख़ुद चुनेगा शाहज़ादा फिर वहां,,
जो पसंद आएगी उसको, उससे ही होगा निकाह"
सुन के ये ऐलान, सारी लड़कियां सजने लगीं,,
थाम के दिल, इन्तिज़ार उस लम्हे का करने लगीं
सिंड्रैला की जो बहनें थीं, लगीं ये सोचने,,
"ये अगर दरबार में जा पहुंची तो फिर होगा ये
देख कर शहज़ादा इसको, देखता रह जाएगा,,
कौन पूछेगा हमें, इसको ही वो अपनाएगा"
सोच कर ये बात, घर के काम सब उसको दिये,,
चल पड़ीं दरबार को, परवाह बिन उसकी किये
सिंड्रैला थी अकेली, इक परी हाज़िर हुई,,
सिंड्रैला को सजाया, उसको इक गाड़ी भी दी
हूर-सी लगने लगीं अब, सिंड्रैला साहिबा,,
चल पड़ीं दरबार को वो, वाह अब कहना ही क्या !
शाहज़ादे ने जो देखा, रक़्स को मदऊ किया,,
नाचते दोनों रहे, लेकिन यकायक ये हुआ
"देर मुझको हो गई है" सिंड्रैला को लगा,,
तेज़ क़दमों से वो भागी, शाहज़ादा था हैरां
भागते में उसकी इक नालैन वां पे रह गई,,
सिंड्रैला की निशानी शाहज़ादे को मिली
उसने ये ऐलान करवाया कि "सुन ले हर कोई,,
जिसकी ये नालैन है, दुल्हन बनेगी बस वही"
सुन के ये ऐलान, फिर से लड़कियां आने लगीं,,
पैर में लेकिन किसी के जूती वो आई नहीं
सिंड्रैला जी की बहनों ने भी की कोशिश बड़ी,,
पैर में जूती न आई, उन को मायूसी हुई
आज़मा जब सब चुके तो सिंड्रैला ने कहा,,
"ये तो मेरी जूती है, लाओ ये मुझको दो ज़रा"
जैसे ही उसने वो पहनी, जूती उसके आ गई,,
ये अदा भी उसकी, शह्ज़ादे के दिल को भा गई
कर ली शादी सिंड्रैला से, बहुत ख़ुश वो हुआ,,
रह गईं जल-भुन के, जितनी थीं वहां पे लड़कियां
इस तरह तक़दीर उस मज़लूम की रौशन हुई,,
बन गई बेगम वो शाही, कल तलक जो कुछ न थी
सच कहा है ये किसी ने, "जो मुक़द्दर में लिखा,,
मिल के वो रहता है, दुश्मन लाख ही चाह ले बुरा ।"
---मुईन शमसी (सर्वाधिकार सुरक्षित)
गुरुवार, 1 सितंबर 2011
Hindi Ghazal - हिन्दी ग़ज़ल : शायरी | by MOIN SHAMSI
Hindi Ghazal - हिन्दी ग़ज़ल : शायरी | by MOIN SHAMSI
अभिव्यक्ति है ये भावनाओं के उफान की
ये शायरी ज़बां है किसी बे-ज़बान की
है कल्पना के संग ये निर्बाध दौड़ती
चर्चा कभी सुनी नहीं इसकी थकान की
उड़ने लगे तो सातवां आकाश नाप दे
सीमा तो देखिये ज़रा इसकी उड़ान की
बनती कभी ये प्रेम व सौन्दर्य की कथा
कहती कभी है दास्तां तीरो-कमान की
मिलती है राष्ट्रभक्ति की चिंगारी को हवा
लेती है जब भी शक्ल ये एक देशगान की
समृद्ध इसने भाषा-ओ-साहित्य को किया
रक्षा भी की है शायरों-कवियों के मान की
’शमसी’ जहां में इसने कई क्रांतियां भी कीं
दुश्मन बनी है क्रूर नरेशों की जान की ।
---मुईन शमसी (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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