रविवार, 29 मई 2011

Travelogue | सफ़रनामा | "चार-गाम-यात्रा" (मेरा पहला धारावाहिक यात्रा-संस्मरण)

Travelogue | सफ़रनामा | "चार-गाम-यात्रा" (मेरा पहला धारावाहिक यात्रा-संस्मरण) 


अगर इस सफ़रनामे को सुनना चाहें, तो यहाँ क्लिक करें : 

https://youtu.be/wi-J3stK8zE 


रचनाकार : मुईन शम्सी (ALL RIGHTS ARE RESERVED)



एपिसोड 1 


हज़रत निज़ामुद्दीन-बैंगलोर राजधानी ऐक्स्प्रेस में दो रातों तक कुछ नन्हे-मुन्ने कॉकरोचों से दो-दो हाथ करते हुए 30 अक्टूबर की सुबह जब हम बैंगलोर सिटी जंक्शन पहुंचे तो दिन निकल चुका था । ट्रेन रुकने से पहले ही हमें उन क़ुलियों ने घेर लिया जो चलती ट्रेन में ही अन्दर आ गये थे । सामान उठाकर ले चलने से लेकर होटल दिलाने, लोकल साइट-सीइंग और मैसूर-ऊटी तक का टूर कराने के ऑफ़र्ज़ की बरसात होने लगी । 


मगर हम तो काफ़ी जानकारी पहले से ही इकट्ठा करके पूरी तैयारी से आये थे, इसलिये क़ुली साहिबान की दाल नहीं गली और धीरे-धीरे जब वो सब एक-एक करके इधर-उधर कट लिये, तब हमारा "होटल खोजो अभियान" शुरु हुआ । हम फ़ैमिली को प्लेटफ़ॉर्म नं. 1 पर कॉफ़ी-शॉफ़ी पीता छोड़कर स्टेशन से बाहर आए और बग़ैर सूंड के हाथी की तरह मुंह उठाए मेन रोड पर आकर बाईं तरफ़ चल दिए ।


कुछ दूर जाकर ही मन में आकाशवाणी होने लगी कि ’भईये, इधर कोई होटल-फोटल नहीं है, ग़लत आ गए हो ! ट्रैफ़िक रूल्ज़ के कट्टर फ़ॉलोअर बन कर बाएं हाथ पर मत चलो ! स्टेशन के दाईं तरफ़ जाओ ! कल्याण होगा !’


बस जनाब ! उस ’दैवीय आदेश’ पर अमल करते हुए तुरंत पीठ घुमाकर यू-टर्न मारा, और अब हम स्टेशन के दाईं तरफ़ जा रहे थे । थोड़ी दूर चलते ही होटलों के आसार नज़र आने लगे । फ़ौरन ही अपने ख़ुद के ही एक कथन की सत्यता का अहसास होने लगा कि "जब कभी भी ’टू रोड्स डायवर्टेड इन अ यलो वुड’ जैसी सिचुएशन आ जाए और कानों में पुरानी फ़िल्म ’बरसात की रात’ की क़व्वाली ’मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं’ गूंजने लगे, तो बेटा अपने दाईं ओर जाओ ।" ज़रा और आगे बढे, तो होटलों के असंख्य साइन-बोर्ड्स हमारा स्वागत करते हुए मिलने लगे और रेडलाइट पार करते ही हमने ख़ुद को ’होटलूर’ में पाया ।


Episode 2:


यहां आपको बता दूं कि ’होटलूर’ किसी होटल या अन्य जगह का नाम नहीं है । इस शब्द का आविष्कार मैंने अभी-अभी ये पंक्तियां लिखते हुए किया है । और इस आविष्कार के पीछे वजह यह है कि साउथ इण्डिया में ’ऊर’ या ’ऊरू’ शब्दांश पर ख़त्म होने वाले अनेक स्थान हैं जैसे मैसूर (मैसूरू), चिकमंगलूर, होसूर, कुन्नूर, रायचूर, मैंगलूर, बैंगलूरू (बंगलौर) आदि । ’ऊर’ या ’ऊरू’ का अर्थ होता है ’गाँव’ या ’स्थान’ । ठीक वैसे ही जैसे अपने नॉर्थ में ’पुर’ लगाते हैं... ’पु्र्र....’ जैसे कानपुर्र...., रामपुर्र..., धौलपुर्र.... जयपुर्र....’ वग़ैरा । 


तो उसी तर्ज़ पर मैंने यह शब्द बना लिया.... "होटलूर" । यानि कि ’होटलों का स्थान’ । वाक़ई उस एरिया में अनेक होटल्स हैं... हर बजट के । वैसे उस जगह का सरकारी नाम "कॉटनपेट मेन रोड" है और वहां की गलियां तक होटलों से पटी पड़ी हैं ।


ख़ैर साहब ! ’होटलूर’ में कुछ होटलों के रूम्ज़ का मुआयना करने के बाद हमने एक होटल पसंद किया और रिसेप्शन पर अन्य सुविधाओं की जानकारी हासिल की । फिर "हम अबी आता है" कह कर वापस स्टेशन की तरफ़ चल दिये अपने "चल" और "अचल" सामान को लेने । "चल" सामान बोले तो... ’अपनी फ़ैमली’ ।


स्टेशन पहुंचे । "सामान" साथ लिया, और ’ऐग्ज़िट’ गेट की तरफ़ मुंह किया ही था कि एक क़ुली महोदय जोकि ट्रेन से उतरते ही हमें मिल गए थे, फिर से हमारे सामने नमूदार हो गए (शायद उन्हें पूरा विश्वास था कि "ये मुर्ग़ा ज़रूर फंसेगा") और उन्होंने सिर्फ़ बीस रुपये में हमारा सारा सामान उठाकर बाहर तक ले चलने का ऐसा "दीवाली ऑफ़र" दिया कि हम ’ना’ न कर सके और उनके द्वारा डाले गए दाने को चुग गए । अगले ही पल हमारा सारा सामान उनके शरीर के चारों ओर अजगर की तरह लिपटा हुआ था और हम "शिकारी शिकार करता है, ’...........’ पीछे-पीछे चलते हैं" के स्टाइल में उन्हें फ़ॉलो कर रहे थे ।


Episode 3 :

मुश्किल से दो मिनट हम मनमोहन देसाई की उस सुपरहिट फ़िल्म के पीछे-पीछे चले होंगे और उतनी ही देर में मुल्कराज आनंद के उस कैरेक्टर ने हमें सस्ती दरों पर आई-टी-डी-सी के होटल और लोकल साइट सीइंग की बुकिंग कराने के लिये राज़ी कर लिया और हम ’होटलूर’ में अपने द्वारा पसंद किये गए होटल को भूलकर उसके साथ टूर-ऑपरेटर्स की उस चेन की एक कड़ी के ऑफ़िस में पहुंच गए, जो अपने साइन-बोर्ड्स पर अपनी ख़ुद की फ़र्म का नाम तो नन्हा-मुन्ना लिखती है मगर ’आई.टी.डी.सी’ किंगसाइज़ अक्षरों में । और हां, इन भीमकाय चार अक्षरों यानि ’आई.टी.डी.सी’ के ऊपर ’अप्रूव्ड बाय’ इतने बारीक अक्षरों में लिखा होता है कि पहली नज़र में आप तो क्या, आपका चश्मा भी उसे नहीं पढ़ पाएगा ।

Episode 4:


हालांकि वहां पहुंचते ही हमें अपने हलाल हो जाने का अहसास हो गया | मगर हमने सोचा कि ’इस अंजान शहर में लोकल साइट-सीइंग किसी के साथ तो करनी ही है, चलो यही सही’। यह सोचकर तुरन्त जेब से पैसे निकालकर उस शातिर टूर-ऑपरेटर के हवाले कर दिये जो अब तक हमसे हमारा नाम वग़ैरा पूछकर रसीद भी काट चुका था । रसीद और बाक़ी पैसे उससे लेकर हम चेयर से उठने को ही थे कि उस ’उस्तादों के उस्ताद’ ने ’घर से दूर घर जैसा अहसास’ कराने वाले ’सर्व-सुविधा-सम्पन्न’ होटल में ’कौड़ियों के भाव’ शानदार रूम दिलाने का ऐसा ’लाइफ़-टाइम-ऑफ़र’ दिया कि हम होटलूर में स्वयं-चयनित होटल को पुन: भूलकर अपने सामने बैठे अपने उस ’सच्चे हमदर्द’ की बातों में दुबारा आ गए जो पिछले दस मिनट से हम पर अपनी ’हमदर्दी का पूरा का पूरा दवाख़ाना’ उंडेले जा रहा था । उस ’मेरे हमदम मेरे दोस्त’ ने तुरंत अपने ’छोटू’ को कन्नड़ में ऑर्डर दिया कि ’साब को फ़लां-फ़लां होटल्स में लेकर जाओ और कोई रूम पसंद करवाओ ।’ 


ग़नीमत रही कि उस महान आत्मा ने हमसे होटल का किराया ख़ुद न लेकर "वहीं होटल में ही दे देना" कह दिया और हम उस ’छोटू उस्ताद’ के हमराही बन गए जो हमारा सामान उठाने के नाम पर सबसे छोटा बैग उठा रहा था और हमारे ऑब्जैक्शन करने पर अपने मालिक की डाँट खाने के बाद बड़ा बैग उठाकर चल तो पड़ा था, मगर बड़बड़ाता जा रहा था । उसकी उस बड़बड़ाहट से खिन्न होकर रास्ते में उस से जब हमने यह कहा कि "अबे कन्नड़ में गाली दे रहा है क्या?" तो दक्षिण भारत के किसी घमंडी फ़िल्मी हीरो की तरह ऐंठकर बोला, "गाली कोन दिया ? किदर दिया ? हम पागल है क्या"?


 लेकिन इसके फ़ौरन बाद ही उसने कन्नड़ में कुछ वाक्य इस तरह बोले कि पत्नी कहने लगी, "पहले दी हो या न दी हो, पर इस बार तो पक्का गाली ही दे रहा है"।


Episode 5:


ख़ैर । उस वक़्त से पहले बड़े हो गए ’नन्हे-मुन्ने राही देश के सिपाही’ द्वारा दिखाए गए दो-तीन होटल्स को रिजेक्ट करने के बाद जब हम उससे पीछा छुड़ाने लगे, तो वो "इदर आओ, एक ओर दिखाता ऐ" कहकर हमें लेकर जैसे ही एक बिल्डिंग में घुसा, हमने पाया कि वो कोई होटल नहीं, बल्कि एक छोटा सा स्कूल था और वहां बच्चे पंक्तिबद्ध होकर टीचर्स की निगरानी में मॉर्निंग-असेम्बली में भाग ले रहे थे ।


"अबे ये तो स्कूल है ! होटल कहां है ?"


"अरे होटल बी ऐ । तुम आओ ना !"


यह कह कर वो ’अकड़ूमल ऐंठूप्रसाद’ हमें स्कूल के एक कोने में ले गया जहां वाक़ई एक होटल का एंट्रेंस था ।

मगर वो होटल भी हमें पसंद नहीं आया और हमने सख़्ती से उससे कहा, "तुम जाओ । हमें नहीं लेना है होटल-वोटल ।" वो भी हमारी परेड कराते-कराते शायद पक चुका था, इसलिये "भाड़ में जाओ" वाले स्टाइल में झटके से "ओक्के" बोलकर बड़बड़ाता हुआ एक गली की ओर बढ़ गया और हम उसकी इस ’अदा’ पर मुस्कुराते हुए अपनी तशरीफ़ का टोकरा लेकर उसी होटल की जानिब चल पड़े जिसे हमने ख़ुद पसंद किया था । (यहां यह बता दूं कि हमारी यह ’लेफ़्ट-राइट’ ’होटलूर’ में ही हो रही थी ।)


Episode 6:


होटल पहुंचते ही रूम लिया और ब्रेकफ़ास्ट ऑर्डर करके लोकल-साइट-सीइंग के लिये जाने की तैयारी करने लगे क्योंकि एक घंटे के अंदर वो बस हमें लेने के लिये आने वाली थी जिसमें हमने अपनी इस ’चार गाम यात्रा’ के पहले ’गाम’ यानी ’बैंगलूरू’ के दर्शन के लिए सीटें बुक कराई थीं ।


निर्धारित समय पर बस आ गई, लेकिन जल्दी-जल्दी नाश्ता पेट में उंडेलने के बावजूद हम बस में ज़रा देर से पहुंचे । बस में घुसते ही वहां पहले से मौजूद पर्यटकों ने हमें खा जाने वाली नज़रों से ऐसे घूर कर देखा जैसे पूछ रहे हों कि "क्यों बे ! इतनी देर लगा दी ? क्या कर रहे थे अब तक ?"


ख़ैर ! हमारे बैठते ही बस चल पड़ी । बस के चलते ही दो और चीज़ें चल पड़ीं... एक तो हमारा वीडियो कैमरा, और दूसरी, हमारे बहुभाषी गाइड की ज़बान, जोकि हमें हिन्दी, इंगलिश और साउथ-इण्डियन लैंग्वेजेज़ में ’रनिंग कमेंट्री’ सुना रहा था ।


Episode 7:


ये तीनों चीज़ें (यानि बस, कैमरा और ज़बान) चलते-चलते सबसे पहले पहुंचीं ’इस्कॉन टैम्पल’ । इस मन्दिर के पास मैट्रो-ट्रेन का ऐलिवेटेड-ट्रैक बन रहा है, इसलिये मंदिर से थोड़ा पहले ही उतर कर मंदिर तक पैदल जाना पड़ा । यह एक शानदार मंदिर है । यहां किसी भी तरह की फ़ोटोग्राफ़ी करना मना है । मोबाइल से भी नहीं । लिहाज़ा हमें अपने जूतों के साथ-साथ कैमरा भी उतारना पड़ा (अरे गले में लटका था भई !) । मन्दिर के आंगन में हर आगंतुक को मन्दिर की एक बड़ी से तस्वीर के सामने खड़ा करके उसकी फ़ोटो खींची जाती है । इस फ़ोटो को आप मंदिर से बाहर निकलते वक़्त ख़रीद भी सकते हैं ।


इस मंदिर में आप दोनो तरह की पूजा कर सकते हैं, धार्मिक पूजा भी और ’पेट-पूजा’ भी । दर-अस्ल यहां पर धार्मिक महत्त्व की चीज़ें बेचने वाली कई दुकानों के साथ-साथ कई तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बेचने वाली एक बड़ी-सी रेस्ट्राँ-नुमा दुकान भी है । यहां आपकी लार ज़रूर टपकेगी ।


Episode 8:


मंदिर का कोना-कोना घूमने के बाद हम बाहर आए और कुछ ही देर में हमारी बस जा रही थी हमारी अगली मंज़िल की तरफ़ । यह मंज़िल थी- ’टीपू सुल्तान का लगभग सवा दो सौ साल पुराना लकड़ी का महल’ । यह महल पूरी तरह सागवान की लकड़ी का बना हुआ है और एक अच्छा अहसास देता है । इस महल में कुछ समय गुज़ारने के बाद हमारा कारवां पहुंचा ’बुल-टैम्पल’ (नन्दी मंदिर) । यहां नन्दी की एक विशालकाय प्रतिमा है जिस पर भक्तगण पुष्पादि अर्पित करते हैं ।


नंदी-मंदिर से निकलकर हम पहुंचे चालीस एकड़ में फैले ’लालबाग़ बोटैनिकल गार्डन’, जहां हमारा स्वागत उन हल्की-हल्की रिमझिम फुहारों ने किया जोकि इस सुन्दर बाग़ की ख़ूबसूरती में और भी अधिक इज़ाफ़ा कर रही थीं । ये लालबाग़ सिर्फ़ नाम का ही ’लाल’ है । असल में ये बेहद ’हरा’ है । और ’भरा’ भी । यहां आपको झील, तरह-तरह के पेड़-पौधे, फूल और पक्षी देखने को मिलेंगे । ’प्रेम-पक्षी’ भी । अर्थात, ’लव-बर्ड्स’। 


लेकिन उन ’प्रेम-पंछियों’ की एक बात हमें अच्छी लगी । वो दिल्ली के पार्कों में बड़ी संख्या में पाये जाने वाले, ’आधुनिकता’ के नाम पर ’अश्लीलता’ में लिप्त, तथाकथित ’मॉडर्न’ लैला-मजनुओं की तरह बेशर्म नहीं थे ।


Episode 9:


’लाल’ बाग़ के ’हरे’ सौन्दर्य को जी भर के निहारने के बाद हम जैसे ही इसके वैस्ट-गेट से बाहर निकले, हमारे पेट में चूहों के कॉमनवैल्थ गेम्स शुरू हो गए और हम वहीं नज़दीक में बने रेस्ट्रॉं ’कामत होटल’ की तरफ़ बढ़ लिये । (इस रेस्ट्रॉं में लंच करने के लिये हमें हमारे गाइड ने पहले ही ’गाइड’ कर दिया था ।) अंदर पहुंचकर एक टेबल पर क़ब्ज़ा किया और मेन्यू-कार्ड बांचने लगे । साउथ-इंडियन और चायनीज़ डिशेज़ की भीड़ में उत्तर-भारतीय आयटम तलाशते-तलाशते एक बार जो हमने अपनी निगाहों का कैमरा चारों तरफ़ घुमाया तो पाया कि ज़्यादातर लोग ’थाली’ में ही ’डूबे’ हुए थे । सोचा कि चलो हम भी ’थाली के बैंगन’ बन जाते हैं । 


लिहाज़ा फ़ौरन ऑर्डर ठोंका और चंद ही मिनटों में थाली हाज़िर ! और जनाब, थाली क्या थी, ’थाला’ थी । पूरे ग्यारह आयटम्स थे उसमें । और सबके सब ’वेरी-वेरी टेस्टी-टेस्टी’ ! और क़ीमत ? सिर्फ़ पैंतीस रुपये ! 


एकदम भरीपूरी थी । हम कोशिश करके भी सारे आयटम्स न खा सके ।


Episode 10:


भारी पेट लिये जब वहां से निकले तो सामने एक नारियल-पानी वाला दिखाई दिया और हम "आय ऐम कृष्ना-अय्यर-यम्मे... आय ऐम नारियल-पानी वाला" गाते हुए उसकी तरफ़ बढ़ लिये । हलांकि पेट ठुंसा हुआ था, मगर आप जानते ही हैं कि बस भले ही कितनी ही भरी हुई हो, कंडक्टर के लिये जगह बन ही जाती है । लिहाज़ा हमने अपने पेट-रूपी ’ठसाठस भरी हुई बस’ में नारियल-पानी और उसकी मलाई रूपी ’कंडक्टर और हैल्पर’ को भी घुसा लिया और चल पड़े अगली मंज़िल की जानिब ।


लेकिन यह ’अगली मंज़िल’ बिल्कुल ऐसे थी जैसे किसी बेहतरीन फ़िल्म में ख़्वाह-म-ख़्वाह घुसेड़ा हुआ बेसुरा गाना, जोकि फ़िल्म की गति को यकायक रोककर दर्शकों को वाशरूम जाने की प्रेरणा दे देता है । अगर आपने कभी किसी शहर में टूर-ऑपरेटर के ज़रीये लोकल-साइट-सीइंग की है, तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं ’आर्ट्स ऐंड क्राफ़्ट इम्पोरियम’ जैसे किसी शोरूम की बात कर रहा हूं । टूर-ऑपरेटर का गाइड आपको कहीं और ले जाए या न ले जाए, मगर ऐसे इम्पोरियम्स में ज़रूर ले जाएगा और आपकी जेब का वज़न हल्का करवा कर आप पर अहसान करेगा । उसका यह अहसान हमने भी लिया और थोड़ी-बहुत शॉपिंग करके ख़ुद को धन्य समझा ।


Episode 11:


यहां से निकले तो "पिया तोसे नैना लागे रे" वाली फ़िल्म के टायटल ने ऐलान किया कि ’अब चूंकि हम लेट हो चुके हैं, इसलिये अब फ़लां-फ़लां जगह नहीं जा पाएंगे, बस अब "विश्वेश्वरैया इंडस्ट्रियल ऐंड टेक्नॉलॉजिकल म्यूज़ियम (वी.आई.टी. म्यूज़ियम) चल रहे हैं ।" साथ ही यह फ़रमान भी सुनाया कि "वहां से 4:30 पर निकलना होगा । अगर आप लोग वहां और ज़्यादा देर रुकना चाहें, तो फिर आपको ऑटो वग़ैरा से ख़ुद ही अपने-अपने होटल्स पहुंचना होगा क्योंकि बस तो 4:30 पर चली ही जाएगी ।" 


उसकी यह बात कुछ बुरी तो लगी मगर हम उसका बिगाड़ भी क्या सकते थे ! लिहाज़ा "ओके" कहकर चुप हो लिये और थोड़ी देर बाद हम वी.आई.टी.म्यूज़ियम के अंदर थे ।


इस म्यूज़ियम की तीन मंज़िलों पर काफ़ी कुछ देखा जा सकता है । हमने भी देखा । मगर कुछ ख़ास मज़ा नहीं आया क्योंकि वैसी चीज़ें हम दिल्ली के साइंस सैंटर में कई बार देख चुके हैं । हां बहुत दिनों से थ्री-डी मूवी नहीं देखी थी, सो उसे ज़रूर खुलकर इन्ज्वाय किया । मगर आप वहां जाएं ज़रूर, क्योंकि अगर नहीं जाएंगे, तो कुछ न कुछ मिस ज़रूर करेंगे । (अगर आपके साथ बच्चे हैं, तब तो वहां ज़रूर जाएं ।)


६ बजे तक वहां रहे । टूरिस्ट-बस को जाना था, सो वो 4:30 पर चली ही गई थी । अलबत्ता, गाइड महोदय ने हमें फ़ोन करके पूछा ज़रूर था कि "भईये, चल रहे हो या अभी और टिकोगे ?" हमारे "अभी रुकेंगे" कहने पर बोला कि "ठीक है । वी आर लीविंग । आप ऑटो पकड़ कर आ जाना, आपके होटल तक तीस-पैंतीस रुपये लेगा ।"


Episode 12:


म्यूज़ियम से बाहर निकलते ही एक ऑटो वाले से पूछा कि ’भई, कॉटनपेट मेन रोड चलोगे ?’ बोला, "नाइंटी रुपीज़ ।" हम चिढ़ गए ! कि हमें बाहर का समझ कर लूट रहा है ! ऐंठकर बोले, "नहीं जाना है ! जाओ !" 


लेकिन इसके बाद हमारी ऐंठ तब काफ़ूर हो गई जब हम एक के बाद एक ऑटो रोकते रहे और हर ऑटो वाला रुकने के बाद फ़ौरन आगे बढ़ जाता रहा । पंद्रह-बीस ऑटो रोके, मगर ’कॉटनपेट’ के नाम से हर कोई बिदक जाता था । हम परेशान ! कि आख़िर मुसीबत क्या है भई ? कोई वहां क्यों नहीं जाना चाह रहा ? इस बीच ’नाइंटी रुपीज़’ मांगने वाला ऑटो भी जा चुका था । 


हम ’बे-बस’ तो पहले ही हो चुके थे । अब ’बे-ऑटो’ भी हुए जा रहे थे ! तभी एक और ऑटो आता दिखाई दिया । हमने उसे भी हाथ दिया और जैसे ही वो रुका, हमने छूटते ही उससे पूछा, "भाई ये बताओ कि कोई कॉटनपेट क्यों नहीं जाना चाहता ?" वो मुस्कुराया, और बोला, "सर, इस टाइम ट्रैफ़िक जाम रहता है, इसलिये उधर कोई नहीं जाएगा ।" हमने कहा कि ’भई प्लीज़ हमें वहां पहुंचा दो । यहां खड़े-खड़े इस क़दर पक चुके हैं कि अब अगर और खड़े रहे तो पके आम की तरह टपक जाएंगे ।’ बोला, "नाइंटी रुपीज़ लगेगा ।"


 उसके इन तीन शब्दों के पूरा होने से पहले ही हम उसके त्रिचक्रीय वाहन में समा चुके थे । उसने फ़ौरन अपने उस ’लोहे के घोड़े’ को ’किक’ रूपी एड़ लगाई और हमने सुकून की सांस लेने के लिये सीट से टिक कर अपना मुंह फाड़ दिया । लेकिन कुछ ही मिनटों में हम जाम में ऐसे फंसे कि नानी नहीं, दिल्ली याद आ गई । जैसे-तैसे ख़ुदा-ख़ुदा करके ’होटलूर’ पहुंचे, और होटल जाकर अपने रूम में ’लम्बलेट’ हो गये ।


Episode 13:


अगले दिन हमारी तशरीफ़ के टोकरे को मैसूर जाना था । सुबह उठकर सोचा कि कुछ टहला जाय । बस ! निकल पड़े अपनी ’चल-सम्पत्ति’ (फ़ैमिली) को होटलूर की उस ’अचल-सम्पत्त्ति’ (होटल) में छोड़कर मॉर्निंग-वॉक करने । कुछ दूर जाकर एक दरगाह देखी तो सोचा कि हाज़िरी दी जाय । मगर तभी ख़याल आया कि यहां फ़ैमिली के साथ आया जाय तो ज़्यादा बेहतर होगा । लिहाज़ा आगे बढ़ लिये । हल्की-फुल्की ख़रीदारी भी की । एक दुकान पर कुछ बेकरी-प्रॉडक्ट्स इतने भाए, कि सोचा वापसी में यहां के कुछ आयटम्स दिल्ली ज़रूर ले जाएंगे ।


दोपहर तक बैंगलोर में रहे । फिर मैसूर की ट्रेन पकड़ने के लिये रेलवे-स्टेशन आ गए । (इस बीच हज़रत तवक्कल मस्तान शाह की उस दरगाह पर भी सपरिवार हो आए थे ।) मैसूर जाने के लिये रिज़र्वेशन नहीं कराया था, इसलिये ऑर्डिनरी टिकिट पर ही जाना था । मगर टिकिट-काउंटर पर ज़बर्दस्त भीड़ देखकर इरादा बदल लिया और स्टेशन के सामने स्थित बस-अड्डे पहुंच कर मैसूर की बस पकड़ ली ।


Episode 14:


रामनगरम, मदूर, मांड्या आदि से गुज़रती हुई ये बस शाम को मैसूर पहुंची । बस से उतरते ही "होटल लेना है साहब ?" सरीखे डायलॉग्ज़ बोलते हुए कुछ एजेंट्स हमारे इर्द-गिर्द मंडराने लगे । हमने जैसे-तैसे उनसे पीछा छुड़ाया । अभी ज़रा ही दम लिया था कि सभ्य-से दिखने वाले एक सज्जन आ धमके । बोलचाल से नॉर्थ-इंडियन लगते थे । अपना विज़िटिंग-कार्ड पेश करके बोले, "आय ऐम अ गवर्मेंट इम्प्लॉई । मेरे पास काफ़ी बड़ा घर है । टूरिस्ट्स को रूम्स भी देता हूं और घर का बना नॉर्थ-इंडियन फ़ूड भी, जोकि यहां आसानी से नहीं मिलता ।" उनके रेट्स भी मुनासिब थे । मगर हम चाहते हुए भी उनके मेहमान नहीं बने, क्योंकि अंजान शहर में थोड़ी-बहुत फूंक तो सरकती ही है । बहरहाल ! वो हज़रत "ऐज़ यू विश" कहकर आगे बढ़ गए । 


इसके बाद हमने वही किया जो बैंगलोर में किया था । मतलब, फ़ैमिली को नव-निर्मित बस-अड्डे की आरामदेह सीटों पर बिठाया और निकल पड़े ’होटल खोजो’ अभियान पर । कुछेक होटल्स देखने के बाद वहीं नज़दीक में संगम थियेटर के पास एक होटल पसंद किया और वापस बस-अड्डे पहुंच गए । फ़ैमिली को साथ लिया, और कुछ ही मिनटों में हम होटल के रूम में बेड पर पड़े हुए थे ।


Episode 15:


फ़्रेश होने के बाद हमने डिनर लेना चाहा और ’रूम-सर्विस’ को तलब किया । डिनर का ऑर्डर लेने जो बन्दा आया, उसने हमें बैंगलोर वाले होटल की याद दिला दी । वहां जो बंदा हमारी सेवा में था, वो हिन्दी, इंगलिश, कन्नड़ सब कुछ जानता था और हमारी कई बातें हमारे बिना कहे ही समझ लेता था । लेकिन यहां जो श्रीमान जी आए, उन्हें सिवाय कन्नड़ के कुछ आता ही नहीं था । हम कहें ’ईरान’ वो समझें ’तूरान’, हम कहें ’अलां’ तो वो समझें ’फ़लां’ ! बड़ी मुश्किल ! हारकर हमने उससे पूछा, "हिन्दी इल्ले ?" जवाब आया, "हिन्दी नईं ।" इससे पहले कि हम अपने बाल नोचें, वो जनाब हमें हाथ से "ज़रा रुको" टाइप इशारा करके चले गये । हम ’ज़रा’ नहीं बल्कि ’काफ़ी’ रुके रहे और "आ लौट के आजा मेरे मीत..." गाते रहे, मगर वो ’मन का मीत’ नहीं आया ।


 तब हमने रिसेप्शनिस्ट को ऑर्डर नोट करवाया और फिर टीवी का रिमोट पकड़ कर साउथ-इंडियन चैनल्स बदलते रहे और अगले दिन का प्रोग्राम बनाते रहे । कुछ देर बाद डोर-बेल बजी तो हम समझ गए कि "उदर-पूजा" का समान आ गया है । तुरंत दरवाज़ा खोला । सामने फिर वही हज़रत हाज़िर ! खाने की ट्रे थामे, ’जॉनी लीवर’ की तरह दांत दिखा रहे थे । हमने उनके लिये रास्ता छोड़ा तो उन्होंने आगे बढ़कर चुपचाप ट्रे टेबल पर रखी और हमारी तरफ़ "और कुछ लाऊं?" वाली नज़रों से देखने लगे । जब हमने "नो, थैंक्स" की तर्ज़ पर सर हिलाया, तो वो एक बार फिर कुछ पल के लिए जॉनी लीवर बने और फिर निकल लिए । इसके बाद हम जब तक उस होटल में रहे, तब तक उनसे ’इशारों को अगर समझो... राज़ को राज़ रहने दो’ वाले तरीक़े से ही बातचीत होती रही ।


Episode 16:


खाने-वाने से फ़ारिग़ होने के बाद हम रिसेप्शन पर गए और अगले दिन के लिए ’लोकल साइट सीइंग टूर’ के लिए बुकिंग कराई । फिर फ़टाफ़ट वापस आकर बिस्तर में दुबक गए, क्योंकि सुबह 8:30 पर निकलना था ।

अगली सुबह (1 नवंबर को) निर्धारित समय पर बस आ गई और हमारा ’मैसूर-दर्शन’ शुरू हो गया । हल्की फुहारों के बीच हम सबसे पहले पहुंचे ’जगनमोहन पैलेस’, जोकि अब ’आर्ट-गैलरी’ में कन्वर्ट हो चुका है । 


यहां देखने को काफ़ी कुछ है, मगर फ़ोटोग्राफ़ी की इजाज़त नहीं है । यह पैलेस बहुत बड़ा तो नहीं है मगर फिर भी यहां जाकर अच्छा लगा । यह मैसूर के पांच प्रसिद्ध महलों में से एक है । दूसरा पैलेस है ’लक्ष्मी-विलास-महल’, जिसे ’मैसूर-पैलेस’ भी कहते हैं । बाक़ी के तीन पैलेसेज़ फ़ाइव-स्टार-होटल्स में कन्वर्ट हो चुके हैं ।


जगनमोहन-पैलेस घूमने के बाद जब बस में वापस बैठे, तो गाइड महोदय ने ऐलान किया कि "अब हम मैसूर-सिल्क-इम्पोरियम चल रहे हैं जहां से आप असली सिल्क-साड़ियां और असली चंदन से बनी चीज़ें ख़रीद सकते हैं"। कुछ ही देर में हम उस इम्पोरियम पर मौजूद थे । कुछ ख़रीदना-वरीदना था नहीं, लिहाज़ा हमने बस में ही बैठे रहकर आराम फ़रमाना ज़्यादा मुनासिब समझा । हम-जैसे कुछ और ’जागरुक पर्यटक’ भी बस में ही रहे, मगर कई ऐसे लोग, जो या तो न्यूली-मैरिड-कपल थे, या ’जागो ग्राहक जागो’ में विश्वास नहीं रखते थे, ’पर्यटकीय अदा" के साथ इम्पोरियम के अंदर गए और थोड़ी देर बाद हाथों में एक-एक दो-दो पैकेट्स उठाए हमारी तरफ़ यों देखते हुए वापस आए जैसे कह रहे हों " अबे कंजूसो ! दमड़ी निकालने में दम निकलता है तो घूमने आए ही क्यों हो ?" इधर हम उनकी मासूमियत पर "च...च...च..." कर रहे थे ।


Episode 17:


खैर साहब ! यहां से निकल कर हम पहुंचे 1892 में बने ’मैसूर-ज़ू’, जोकि इंडिया का सबसे पुराना चिड़ियाघर है । यह काफ़ी बड़ा है और यहां क़िस्म-क़िस्म के परिंदे हैं । मगर यहां "प्रेम-परिंदों" के दर्शन नहीं हुए । असल में यहां भीड़ ही इतनी अधिक थी कि प्रेम-परिंदों को यहां गुटर-गूं करने के लिए एकान्त न मिल पाता । इसलिए बेचारे कहीं और ’उड़’ गए होंगे । बहरहाल !


ये चिड़ियाघर दिल्ली के चिड़ियाघर से ज़्यादा बड़ा, अच्छा, सफ़-सुथरा और हरा-भरा है । यहां हमने नाचता मोर भी देखा, जो शायद पहले कभी नहीं देखा था (कम से कम इतने नज़दीक से तो नहीं ही देखा था) ।


ज़ू में घूमते-घूमते इंसान थक ही जाता है । और इत्तिफ़ाक़ से हम भी इंसान ही कहलाते हैं । लिहाज़ा हम भी थक गए । और फिर बाक़ी जगहें भी देखनी थीं । सो ’ऐग्ज़िट-गेट’ की तरफ़ रवानगी डाल दी ।


अगला स्पॉट था वो रेस्ट्रॉ, जहां गाइड महोदय के निर्देशानुसार हमें लंच लेना था । ’थाली’ यहां भी थी, मगर बैंगलोर के ’कामत होटल’ की तरह सिर्फ़ ३५ रुपये की नहीं थी । और इस थाली में उतने आयटम्स भी नहीं थे, जितने बैंगलोर वाली थाली में थे । यहां बस इडली, डोसा, उत्तपम, सांभर वग़ैरा ही थे । ऐसे में हमारी ’होम-मिनिस्टर’ का मन हुआ कि अपना उत्तर-भारतीय खाना खाया जाय । तुरंत उस रेस्ट्रॉं से बाहर आए और गाइड द्वारा निर्धारित ’प्रोटोकॉल’ को तोड़ते हुए एक बार फिर से बिना सूंड के हाथी की तरह निकल पड़े ’अपने वाले’ भोजनालय की तलाश में । और हां, इस बार हम अपने राइट-साइड ही मुड़े थे । जल्दी ही हमें अपने ’वास्कोडिगामा’ होने का गुमान हो गया, क्योंकि रंजीत सिनेमा के पास हमें ’राइस-बोल’ नाम का नॉर्थ-इंडियन रेस्ट्रॉं मिल गया था ।


Episode 18:


’राइस-बोल’ में हमें सब-कुछ मिला... दाल-मखानी, राजमा-चावल, छोले, तंदूरी-रोटी, नान, पनीर की सब्ज़ी... और भी न जाने क्या-क्या ! यानी हर प्रकार के ढाबा-व्यंजन ! पिछले तीन दिनों तक लगातार साउथ-इंडियन डिशेज़ खा-खाकर ऊब गए थे, सो यहां टूट पड़े ’साड्डे’ खाने पर, और दबा के खाया । 


बिल भी कोई बहुत ज़्यादा नहीं आया । खाने के स्वाद और मुनासिब रेट्स का गुणगान करते हुए बाहर निकले और बस की तरफ़ चल पड़े । कुछ ही देर में बस हमें ’मैसूर-पैलेस’ की तरफ़ जा रही थी ।


मैसूर-पैलेस बेहद शानदार है । बाहर से भी और अंदर से भी । ये काफ़ी बड़ा है और आराम से देखे जाने के क़ाबिल है । महल के अन्दरूनी हिस्से में किसी भी तरह की फ़ोटोग्राफ़ी करना मना है । बाहरी हिस्से में हाथी और ऊंट की सवारी का मज़ा भी लिया जा सकता है ।


 महल-परिसर में एक बड़ा मंदिर भी है । साथ ही ’इम्पोरियम’ भी, जिसके बारे में हमारे गाइड ने पहले ही आगाह कर दिया था यह कहकर कि "इम्पोरियम के बाहर खड़े हुए एजेंट्स आपको अंदर जाने पर मजबूर करेंगे । लेकिन अगर आपको अंदर नहीं जाना है तो अड़ जाइये ।" लिहाज़ा हम अड़ गए और इम्पोरियम के अंदर नहीं गए ।


इतने भव्य महल में हमें एक और बात ख़राब लगी । वो यह कि पूरे परिसर में कहीं भी प्रॉपर जेंट्स-टॉयलेट्स नहीं हैं । यूरिनल्स तो हैं । मगर बात अगर आगे बढ़ जाए, तो फिर आपको महल के पिछवाड़े में बने बेहद गंदे और अस्त-व्यस्त टॉयलेट का इस्तेमाल करना पड़ेगा । महल को देखने रोज़ाना हज़ारों लोग आते हैं । मैनेजमेंट को इस बारे में सोचना चाहिये ।


ख़ैर साहब ! मैसूर-पैलेस की भव्यता को काफ़ी देर तक निहारने के बावजूद अतृप्त मन लिये हम बाहर निकलने को मजबूर हो गए क्योंकि मशहूर ’सेंट फ़िलोमिना चर्च’ हमारा इन्तिज़ार कर रहा था ।


Episode 19:


इस चर्च में जाकर भी अच्छा लगा । खूबसूरत चर्च है यह । इसके अंदर जाने से पहले आपको तीन चीज़ें बंद करनी पड़ेंगी- कैमरा, मोबाइल और अपनी चोंच । बोले तो... ’टोटल सायलेंट’ ।


’सेंट फ़िलोमिना चर्च’ के बाद हमारा कारवां चला, टीपू-सुल्तान की राजधानी श्रीरंगपट्टणम की ओर । शाम घिरने लगी थी और हम समझ गए थे कि आज सारी जगहें नहीं देख पाएंगे । और हुआ भी वही । 


श्रीरंगपट्टणम में बस ख़ानापुरी ही हुई । चलती बस में से ही हमें टीपू सुल्तान के क़िले के अवशेष, उनका शहीद-स्थल, जामा-मस्जिद और "द सोर्ड ऑव टीपू सुल्तान" सीरियल की शूटिंग-लोकेशन वग़ैरह दिखा दिए गए और फिर हमें लगभग बारह सौ साल पुराने ’रंगनाथस्वामी विष्णु मंदिर’ के बाहर छोड़ दिया गया, इस निर्देश के साथ, कि "पंद्रह मिनट में अंदर घूम आइये, इसके बाद हमें ’वृन्दावन-गार्डन’ चलना है"।


 ज़ाहिर था कि हम यहां की बाक़ी जगहों पर नहीं जाने वाले थे । खैर ! हम कर भी क्या सकते थे ! चुपचाप बस से उतरे, और चल पड़े नौवीं सदी के उस ऐतिहासिक मंदिर की जानिब, जो श्रद्धालुओं के साथ-साथ इतिहास-प्रेमियों के लिये भी एक दर्शनीय स्थल है ।


इस मंदिर के अंदर जाकर यों लगता है कि जैसे हम उसी दौर में पहुंच गए हैं । इसका आर्किटेक्चर वाक़ई देखने से ताल्लुक़ रखता है ।


Episode 20:


यहां से निकले, तो पहुंचे ’के.आर.सागर डैम’ । इसी डैम से लगा हुआ है मशहूर ’वृन्दावन-गार्डन’, जोकि ’म्यूज़िकल-फ़ाउंटेन’ के लिये जाना जाता है । रात हो चुकी थी और वहां ज़बर्दस्त भीड़ थी । हर शख़्स या तो फ़ाउंटेन-दर्शन करके आ रहा था या दर्शनों को भागा जा रहा था । हज़ारों लोग थे । अजीब अफ़रा-तफ़री का आलम था । ऐसे में मुझे महात्मा गांधी के ’डांडी-मार्च’ की याद आ रही थी । अगर आपने गांधीजी की डांडी-यात्रा वाली फ़ुटेज देखी है, तो आप वृन्दावन-गार्डन के इस दृष्य को आसानी से इमेजिन कर सकते हैं । ये ’फ़ाउंटेन-मार्च’ इसलिये हो रहा था क्योंकि पार्किंग से फ़ाउंटेन तक जाने के लिये काफ़ी चलना पड़ता है । 


हलांकि मोटरबोट की फ़ैसिलिटी भी अवेलिबल है, मगर चलना फिर भी थोड़ा-बहुत पड़ता ही है । हम भी इस ’फ़ाउंटेनी-मैराथन’ में शामिल हो गए और ’हटो-बचो’ करते हुए थोड़ी देर बाद फ़ाउंटेन तक पहुंचने में सफल हो गए ।


बड़ा अजीब नज़ारा था । हर कोई ’फ़ाउंटेन-महाराज’ के दर्शन को लालायित था । स्टेडियम-नुमा सीढ़ियों पर लोग यों विद्यमान थे जैसे स्पेन में बुल-फ़ाइट देख रहे हों । संगीत की लहरियों पर अनेक फ़व्वारों से म्यूज़िकली निकलता पानी और उस पर मुख़तलिफ़ ऐंगल्स से पड़तीं रंगबिरंगी लाइट्स वाक़ई एक ख़ूबसूरत समा बांध रही थीं । और मस्ती का आलम यह था कि किसी साउथ-इंडियन लैंग्वेज के सिर्फ़ ’सापड़ी इल्ले अन्ना’ जैसे मात्र कुछेक ही वाक्य जानने वाला हम जैसा उत्तर-भारतीय भी वहां बज रहे रीजनल लैंग्वेज के डांस-नम्बर पर मुण्डी हिलाने लगा ।


लेकिन, मगर, किंतु, परंतु... न जाने क्यों हमें लगा कि म्यूज़िक, लाइट्स और पानी की फुहारों के दरम्यान और भी अच्छा को-ऑर्डिनेशन बनाया जा सकता था ।


Episode 21:


ख़ैर ।


शो ख़त्म होते ही बारिश शुरू हो गई और हम वापस चल पड़े । तभी ख़याल आया कि मोटर-बोट का भी मज़ा ले लिया जाय ! लिहाज़ा लग गए लाइन में ! बारिश तेज़ हो गई थी और हम किसी अनाज-गोदाम के आंगन में पड़े गेहूं की तरह भीग रहे थे क्योंकि वहां कोई शेड नहीं था ।


जैसे-तैसे हमारा नम्बर आया और हम मोटर-बोट में बैठकर गार्डन के ऐग्ज़िट-गेट के नज़दीक तक तो पहुंच गए, मगर वहां से पार्किंग तक जाने में हम अगर किसी चीज़ को पानी में तर-बतर होने से बचा पाए, तो वो था हमारा विडियो-कैमरा, जिसे हम ऐसे छुपाए हुए थे जैसे कि वो हमारा नवजात-शिशु हो ।


वृन्दावन गार्डन के इस ’गीले दर्शन’ के बाद से लेकर होटल पहुंचने तक हम बस की बुझी हुई लाइट्स का फ़ायदा उठाकर चोरी-चोरी बस के अन्दर ही अपने कपड़े निचोड़ते रहे । (’चोरी-चोरी’ इसलिये, क्योंकि उस लग्ज़री बस का हेल्पर हमें एक बार ऐसा करते देख ’गीले हाथों’ (’रंगे हाथों’ नहीं) पकड़ चुका था और अगली बार ऐसा ना करने की वार्निंग दे चुका था, और ’बस के अंदर ही’ इसलिये, क्योंकि बस के बाहर तो ’रिमझिम गिरे सावन...सुलग-सुलग जाए मन’ हो रहा था । यानि तेज़ बारिश हो रही थी ।)


उस रात बरखा रानी जम के बरसीं । मगर ’दिलबर’ फिर भी चला आया और होटल वापस आकर बिस्तर में दुबक गया ।


Episode 22:


सुबह जब आंख खुली तो मन में एक प्यास थी । न..न...न... वो वाली प्यास नहीं जो आप समझ रहे हैं ! ’पानी’ की प्यास भी नहीं ! बल्कि ’डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला’ वाली प्यास ! दर-असल हम मैसूर और श्रीरंगपट्टणम घूमने के बावजूद मैसूर के ’रेल-म्यूज़ियम’ व ’चामुंडी हिल’ तथा श्रीरंगपट्टणम के ’गुम्बज़, दरिया दौलत बाग व संगम’ जाने से वंचित रह गए थे । लिहाज़ा डिसाइड यह हुआ कि आज खुद ही जाकर कम-अज़-कम ’चामुंडी हिल’ और ’रेल म्यूज़ियम’ तो देख ही आते हैं । बस साहब, चाय-शाय पी-पा के और होटल के रिसेप्शनिस्ट से गायडेंस लेकर निकल पड़े । 


बाहर आकर एक ऑटो पकड़ा और उसके ड्रायवर से अर्ज़ किया कि "सरकार, हमें रेल म्यूज़ियम जाना है । आप कितना चार्ज फ़रमाएंगे ?" वो बोला, "ट्वेंटी-फ़ाइव ।" हम खुश ! ’बस? सिर्फ़ ट्वेंटी-फ़ाइव?’ चल पड़े उसके त्रिचक्रीय वाहन में ! कुछ दूर जाकर वह वाहन एक रेलवे-ट्रैक के पास रुक गया । आगे रोड-कंस्ट्रक्शन-वर्क चल रहा था, सो रास्ता बंद था । ड्रायवर जी बोले, "सर, आपको इदर से पईदल जाना ।" हम बोले, "क्यों?" जवाब मिला, "साब, मेरे को मालुम नईं था कि रास्ता बंद ऐ, नईं तो इदर नईं आता । अब घूम के जाएगा तो लम्बा पड़ेगा साब । आप चले जाओ, पास में ई ऐ म्यूज़ियम ।"


 उसकी बात की पुष्टि एक राहगीर से करने के बाद हम चल पड़े उस खुदी-पड़ी, गारे-भरी सड़क पर, और कुछ ही मिनटों में पहुंच गए उस रेल-संग्रहालय में, जो एकदम वीरान और छोटा-सा था । उस दिन वहां पर हम शायद पहले विज़िटर थे ।


जिसने दिल्ली का रेल-म्यूज़ियम देखा है, उसे मैसूर के रेल-म्यूज़ियम में धेले-भर भी मज़ा नहीं आएगा । फिर भी, आप अगर मैसूर जाएं, तो यह म्यूज़ियम देख ही लीजियेगा । यह मैसूर रेलवे-स्टेशन से सटा हुआ है ।


Episode 23:


यहां से निकलकर हमने फिर एक ऑटो पकड़ा और जा पहुंचे ’सिटी बस-स्टेशन’ । इस बस-अड्डे से शहर के विभिन्न क्षेत्रों और मैसूर के आसपास के इलाक़ों के लिये सिटी-बसेज़ मिलती हैं । हमने भी चामुंडी-हिल जाने वाली बस ले ली । रूट नंबर 201 की यह बस एक लो-फ़्लोर बस थी । दिल्ली की लो-फ़्लोर बसेज़ से ज़्यादा ख़ूबसूरत ! चामुंडी-हिल का किराया, मात्र 17 रुपये !


 शहर की सीमा से बाहर निकल कर जैसे ही बस ने घुमावदार रास्ते पर लहराना शुरू किया, हमारे अन्दर का टूरिस्ट मस्त होने लगा । लगभग 25 मिनट के इस लहराते, बल-खाते सफ़र के बाद हम चामुंडी-हिल के बस-स्टैंड पर पहुंच गए ।


बस-स्टैंड से बाहर निकलते ही महिषासुर की विशाल मूर्ति ने गंडासा लेकर हमारा स्वागत किया । फिर हम चल पड़े ग्यारहवीं शताब्दी में बने ’चामुंडेश्वरी-टैम्पल’ की ओर ।


वहां पहुंच कर अहसास हो गया कि अगर ना आते, तो वाक़ई कुछ मिस कर देते । मंदिर के क़ाबिल-ए-तारीफ़ आर्किटेक्चर को निहारते हुए हमने कई बार उस टूर-ऑपरेटर को कोसा जिसने हमें इस जगह से वंचित रखने की पूरी-पूरी कोशिश की थी । यहीं हमने फ़ैसला किया कि ऊटी-कुन्नूर से वापस आकर दुबारा श्रीरंगपट्टणम जाएंगे और वहां के जो ख़ास-ख़ास स्पॉट्स रह गए हैं, उन्हें ज़रूर देखेंगे ।


बड़े-बड़े नारियलों का पानी पीकर उनकी मलाई जी भर कर खाने के बाद हमने वहां कुछ शॉपिंग की । फिर वापस बस-स्टैंड पर आकर उसी 201 नंबर की बस में सवार हो गए और अगली सीट पर क़ब्ज़ा करके अपना वीडियो-कैमरा ऑन कर लिया ताकि रास्ते में मिलने वाले खूबसूरत नज़ारों को क़ैद कर सकें ।


Episode 24:


मैसूर के सिटी बस-स्टैंड पर उतरते ही हमें लकड़ी के पहियों वाले तांगे के दर्शन हो गए । उस ऐतिहासिक क़िस्म के तांगे के, जो कभी पुरानी दिल्ली की शान था और अब बस पुरानी फ़िल्मों में ही दिखता है । सोचा, ’इस मैसूरी तांगे’ पर भी सवारी कर ली जाय ।’ लिहाज़ा, चढ़ गए तांगे पर, और मेन बस-अड्डे तक ’तांगा-यात्रा’ की ।


 फिर होटल तक पदयात्रा की और फ़टाफ़ट खाना खाकर बोरिया-बिस्तर समेटने लगे । कुछ ही देर बाद ऊटी जाने वाली कर्नाटक-राज्य-परिवहन-निगम की उस बस में पांव फैला कर बैठे हुए थे जिसका रिज़र्वेशन सुबह ही सुबह करवाया था ।


मैसूर से ऊटी तक के सफ़र में मैसूर के जंगल से भी गुज़रना होता है । ’मैसूर का जंगल’ यानी ’वीरप्पन वाला जंगल’ । यह काफ़ी बड़ा है और एक ’टायगर रिज़र्व’ के रूप में संरक्षित है । इसे ’नीलगिरि फ़ॉरेस्ट’ भी कहते हैं । इसका कुछ हिस्सा कर्नाटक में और कुछ तमिलनाडु में है । कर्नाटक वाले हिस्से को ’बांदीपुर नैशनल पार्क’ और तमिलनाडु वाले हिस्से को ’मुदुमलाई नैशनल पार्क’ कहते हैं । (वैसे इसका एक भाग केरल में भी पड़ता है) । 


अगर आप नीलगिरि फ़ॉरेस्ट की इम्पॉर्टैंस से वाक़िफ़ हैं तो इस जंगल से होकर गुज़रना आपको वाक़ई एक रोमांचकारी अनुभव लगेगा । यहां आपको ऐसे अनेक जानवर खुलेआम बेख़ौफ़ घूमते नज़र आ जाएंगे जो अभी तक आपने सिर्फ़ ’जानवर-घर’.... आय मीन... ’चिड़िया-घर’ में ही देखे होंगे । अगर आप ’मुक़द्दर के सिकंदर’ हैं, तो आपको टायगर भी नज़र आ सकता है ।


 लेकिन हां, अगर ख़ुद की गाड़ी से जा रहे हैं, तो यहां के ट्रैफ़िक रूल्ज़ को स्ट्रिक्टली फ़ॉलो कीजियेगा वर्ना लेने के देने पड़ सकते हैं । मेरे एक दोस्त के साथ एक बार ऐसा ही हुआ था । उसने सड़क के किनारे जगह-जगह लगे ट्रैफ़िक-इन्स्ट्रक्शंस को लाइटली लिया था । नतीजा, एक जंगली हाथी ने उसकी कार को दूर तक खदेड़ा था और बड़ी मुश्किल से जान बची थी ।


Episode 25:

साढ़े चार घंटे की रोमांचकारी यात्रा के दौरान कुल मिलाकर काफ़ी मज़ा आया । ऊटी पहुंचने से लगभग 40-50 मिनट पहले एक ’घोंसला’ मिला । न...न...न ! ’खोसला का’ नहीं ! यह घोंसला सड़क से काफ़ी ऊंचाई पर था । आप कहेंगे कि घोंसले तो ऊंचाई पर ही होते हैं, सड़क पर तो होते नहीं हैं ।

 आप सही हैं । मगर क्या आप विश्वास करेंगे कि इस घोंसले तक जाने के लिये बाक़ायदा सीढ़ियां बनी हुई थीं ? जी ! आपको विश्वास करना पड़ेगा । और साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि हम बस से उतर कर सीढ़ियां चढ़ कर उस घोंसले तक गए और वहां कॉफ़ी भी पी । 

अब यह मत पूछियेगा कि वह किस चिड़िया का घोंसला था । क्योंकि वह दर-अस्ल किसी चिड़िया का नहीं, बल्कि इंसानों का घोंसला था और उस घोंसले का नाम था ’नेस्ट रेस्टॉरेंट’, (हा...हा...हा...) !


Episode 26:

लगातार घटते जा रहे टैम्प्रेचर को महसूस करते हुए जब हम ’बा-अदब, बा-मुलाहिज़ा, होशियार’ ऊटी में दाख़िल हुए तो लगभग नौ-साढ़े नौ का टाइम था, मगर चारों तरफ़ सन्नाटा ऐसा था कि मानो रात के दो बजे हों । हमें बताया गया कि ’पहाड़ जल्दी सो जाता है’ ।


बस से उतर कर हम रेलवे स्टेशन के सामने स्थित एक होटल में पहुंचे । इस होटल के बारे में हमें बस के ड्रायवर ने राय दी थी और कहा था कि ’मुनासिब रेट्स वाला होटल है’ । वैसे तो हम यहां भी बंगलौर और मैसूर की तरह ’होटल खोजो अभियान’ चलाकर ही होटल चुनते, मगर रात में इधर-उधर भटकने के बजाय हमने उन बस-ड्रायवर महोदय की राय मानना बेहतर समझा, जो कि एक हाजी थे और सारे रास्ते अपनी मीठी बोली और सभ्य व्यवहार से हमें (और दूसरे पैसिंजर्स को भी) प्रभावित करते रहे थे । 

इन ड्रायवर साहब ने हमें इस होटल के गेट पर ही उतारा और हम रिसेप्शन पर पहुंच गए । रूम्स के रेट्स सुन कर पहले तो हमें लगा कि महंगा होटल है । फिर सोचा कि चलो अभी यहीं ठहर जाते हैं, कल कहीं और शिफ़्ट हो जाएंगे । लिहाज़ा एक रूम ले लिया और खा-पी कर सो गए ।


Episode 27:

अगली सुबह यानी 3 अक्टूबर (धनतेरस) को जब आंख खुली तो सूरज निकल आया था । खिड़की से बाहर निहारने पर सबसे पहले जिस चीज़ पर ध्यान गया, वह थी वातावरण की पुर-सुकून ख़ामोशी । दिल्ली की तरह कोई चिल्ल-पौं नहीं । कभी-कभार किसी वाहन के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दे जाती थी । सच, बड़ा अच्छा लगा । 

लेकिन इस ख़ामोशी को इन्ज्वाय करने का टाइम नहीं था, क्योंकि ऊटी-कुन्नूर-साइट-सीइंग की बुकिंग करा ली थी और बस के आने का टाइम होने वाला था । लिहाज़ा जल्दी-जल्दी तैयार होने लगे ।

निर्धारित वक़्त पर बस आ गई और हमारा ऊटी-भ्रमण शुरू हो गया । सबसे पहले हम पहुंचे ’डोडाबेटा’ । यह नीलगिरि-हिल्स का हायेस्ट प्वाइंट है । यहां बहुत अच्छा लगा । बादलों के टुकड़े बार-बार हमसे गले मिलने आ रहे थे । यहां आकर आप ख़ुद को बादलों से भी ऊपर पाते हैं । हमारे लबों पर बरबस ही "आज मैं ऊपर... आसमां नीचे..." गीत आ गया । इट्ज़ रियली ऐन अमेज़िंग प्लेस ।

Episode 28:

डोडाबेटा के हसीन नज़ारों का लुत्फ़ उठाने के बाद हम कुन्नूर के लिए रवाना हुए । रास्ता चाय के बाग़ान से भरा हुआ था । गाइड ने बताया कि यहां गुज़रे ज़माने की हीरोइन मुमताज़ का कई एकड़ में फैला हुआ टी-एस्टेट है । यह सुनकर अचानक हमारे दिमाग़ में ’रोटी’ घूम गई । खाने वाली नहीं, देखने वाली । यानी मनमोहन देसाई की पुरानी हिट फ़िल्म ’रोटी’ । इसके बाद काफ़ी देर तक हम ’मुंगेरीलाल के हसीन सपनों’ की तरह अपने मन की आंखों से उन चाय-बाग़ान में जगह-जगह राजेश खन्ना और मुमताज़ को ’गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर.....’ गाते हुए देखते रहे ।

हमें यह भी बताया गया कि चाय का हर पौधा लगभग अस्सी साल तक फ़सल देता है । दूर-दूर तक फैले चाय के उस समंदर में डुबकियां लगाते हुए हम बढ़े चले जा रहे थे कि सामने एक ’टापू’ नज़र आया । ’टापू’ बोले तो..... ’टी-इम्पोरियम’ । हमें एक बार फिर बैंगलोर और मैसूर की याद आ गयी और हम यह बात और भी अच्छी तरह से समझ गए कि "टूर-ऑपरेटर चाहे जहां के भी हों, किसी न किसी ’इम्पोरियम’ से सैटिंग रखते ही हैं ।

Episode 29:

ख़ैर साहब ! बस से उतर कर उस इम्पोरियम में दाख़िल हुए और सिर्फ़ पांच रुपये में मिल रही गर्मागरम चाय पर टूट पड़े । चाय बेहद ज़ायक़ेदार थी । लेकिन यह दर-अस्ल हम भोले-भाले ’पर्यटक-पक्षियों’ के लिये डाला गया ’चाय-नुमा दाना’ था, जिसे हम भूखे कबूतरों की तरह चुग गए, और लगे धड़ाधड़ ख़रीदारी करने, अलग-अलग फ़्लेवर्स वाली चाय के रंग-बिरंगे पैकेट्स की । इस बात से अंजान, कि ’बहेलिया’ हमारे इस ’बिना ग़ुटर-ग़ूं के बावलेपन’ को देख-देख मन ही मन अमरीश पुरी की तरह मुस्का रहा था ।

 और वो आज भी वैसे ही मुस्काता होगा । क्योंकि हम-जैसे ’शिकार’ उसके पास रोज़ ही पहुंचते होंगे । अब यह अलग बात है कि वो बेचारे भी अपने ’कबूतरपन’ का अहसास तब कर पाते होंगे, जब अपने-अपने घरों को पहुंचकर हमारी तरह बड़ी शान से उन पैकेट्स को खोलकर चाय बनाते होंगे और उसका पहला घूंट लेते होंगे । तब उनके दिल की गहराइयों से बस एक ही सदा आती होगी, "अरे यार, इसमें क्या ख़ास बात है ! ऐसी चाय तो हमारे यहां भी मिलती है !"

Episode 30:

ख़ैर जनाब ! हमारी अगली मंज़िल थी ’लैम्ब्स रॉक’ । यह एक ऐसी जगह है जहां आप को बेहद अच्छा लगेगा, बशर्ते कि आप क़ुदरती नज़ारों के शौक़ीन हों ।

’लैम्ब्स रॉक’ से निकल कर हम पहुंचे एक रेस्ट्रॉं में, जहां हमें लंच लेना था । एक बढ़िया सी टेबल पकड़ कर जब मेन्यू-कार्ड देखा, तो मुंह में पानी आ गया । ज़ाहिर है, हम भूखे थे । और हमारी ही तरह भूखी थी हमारे वीडियो-कैमरे की बैट्री । लिहाज़ा उस भूखी बैट्री को चार्जर की गोद में बिठाया और चार्जर का रिश्ता स्विच-बोर्ड पर लगे सॉकेट से जोड़ कर अपनी पेटपूजा में लग गए ।

थोड़े महंगे, मगर बेहद लज़ीज़ खाने का लुत्फ़ उठाने के बाद हम अपनी जिस अगली मंज़िल पर पहुंचे, वो क़ुदरत का शाहकार तो नहीं थी, मगर क़ुदरत द्वारा इंसान को अता किये गए दिमाग़ की फ़नकारी का एक बेहतरीन नमूना ज़रूर थी । यह जगह थी कुन्नूर का ’थ्रेड-गार्डन’ । 

यह एक छोटा-सा इनडोर बाग़ीचा है, जिस में तरह-तरह के पौधे, फूल और घास वग़ैरा देखने को मिलते हैं । आप सोच रहे होंगे कि "इसमें कौनसी ख़ास बात है ! पौधे, फूल, घास वग़ैरा तो हर जगह मिलते हैं !" तो जनाब, ख़ास बात यह है कि इस गार्डन में सभी पौधे, फूल और घास धागे के बने हैं । जी हां ! धागे के ! और इसीलिये इसका नाम ’थ्रेड गार्डन’ है । इसे कई महिला-दस्तकारों द्वारा 12 साल की मेहनत के बाद तैयार किया गया है । देखने में ये सभी एकदम असली लगते हैं ।

EPISODE 31:

इस ’धागा-बाग़’ के ठीक सामने है ’बोट-हाउस’ । यहां एक झील है जिसमें बोटिंग का मज़ा लिया जा सकता है । इसके अलावा गार्डन है, बच्चों के लिये ’गेम-ज़ोन’ है और शॉपिंग करने के लिये बहुत-सी दुकानें हैं । यहां हमने बोटिंग और शॉपिंग तो नहीं की, अलबत्ता गेम-ज़ोन में कुछ गेम्स खेले और कॉफ़ी का लुत्फ़ उठाया ।

यहां से चलकर हम लोग पहुंचे ऊटी-बोटैनिकल-गार्डन । दिन ढलने लगा था और गाइड ने यहां घूमने के लिये सिर्फ़ आधा घंटे का समय दिया था । इस समय को हमने शॉपिंग में गंवा दिया और गार्डन के अंदर नहीं जा पाए । लेकिन आप अंदर ज़रूर जाइयेगा क्योंकि बाद में उस गार्डन की ख़ूबसूरती के बारे में सुनकर हम अफ़सोस कर रहे हैं कि पहले वहां हो आते, उसके बाद शॉपिंग के चक्कर में पड़ते । 

और हां, जब बोटैनिकल गार्डन से बाहर निकलें, तो दुकानों पर बिक रही ’होम-मेड चॉकलेट्स’ की लार टपका देने वाली वैरायटी की ख़रीदारी ज़रूर कीजियेगा । इन्हीं चॉकलेट्स पर नीयत ख़राब हो जाने के कारण हम बोटैनिकल गार्डन की सुंदरता से वंचित रह गए थे ।

बोटैनिकल गार्डन उस लोकल-साइट-सीइंग-टूर की लास्ट डेस्टिनेशन था । हालांकि अभी कई जगहें रह गई थीं, मगर सिर्फ़ एक दिन में सब कुछ नहीं देखा जा सकता था । हमें अगले दिन दुबारा कुन्नूर जाना था । ’टॉय-ट्रेन’ से ! अप-एंड-डाउन रिज़र्वेशन पहले ही कर लिया था घर पर । सोचा, कुन्नूर के कुछ स्पॉट्स कल देख लेंगे ।

EPISODE 32:


वापस होटल आए और पैकिंग शुरू कर दी, क्योंकि अभी दो और रातें ऊटी में गुज़ारने का इरादा था और हम होटल चेंज करना चाहते थे । पैकिंग के बाद फ़ैमिली के लिए कॉफ़ी ऑर्डर करके ’मा-बदौलत’ निकल पड़े अपने उसी पुराने चिर-परिचित ’होटल-खोजो-अभियान’ पर !


कई होटल्स देखे । हर बजट के । यहां तक कि सिर्फ़ 300 रुपये वाले भी । मगर कई होटलों और उनके रूम्स में ताक-झांक करने के बाद ’जहांपनाह’ इस नतीजे पहुंचे कि हम जहां ठहरे हुए हैं, वही जगह बेहतरीन है । लिहाज़ा वापस लौटे, लपेटा हुआ बोरिया-बिस्तर फिर से खोल डाला और निकल पड़े सपरिवार, किसी अच्छे रेस्टॉरेंट की तलाश में, क्योंकि कुछ ’ख़ास’ खाने का मन हो रहा था । एक रेस्ट्रॉं पहुंचे, ’ख़ास’ डिनर लिया, मगर मज़ा नहीं आया । खाना खाकर चहल-क़दमी करते हुए होटल वापस आए, और ’केबीसी’ देखते-देखते निद्रा-देवी के आग़ोश में चले गये ।


EPISODE 33:


अगली सुबह यानी 4 नवंबर को कुन्नूर जाने के लिये टॉय-ट्रेन पकड़ी । इस ट्रेन में तीन तरह की बोगीज़ थीं- जनरल. रिज़र्व सीटिंग और फ़र्स्ट-क्लास । (’फ़र्स्ट-क्लास’ श्रेणी अब सिर्फ़ टॉय-ट्रेन्स में ही रह गई है ।) 


’फ़र्स्ट-क्लास’ के नाम पर हालांकि कुछ ख़ास नहीं था इसमें, मगर इतना ज़रूर है कि अगर आप फ़र्स्ट-क्लास का रिज़र्वेशन लेते हैं और क़िस्मत से आपको सीट नं. 1,2,3 या 4 मिल जाए, तो ऊटी से कुन्नूर जाते हुए आप ख़ुद को ट्रेन का गार्ड और वापसी में ट्रेन का ड्रायवर समझेंगे । दर-अस्ल ऊटी से कुन्नूर जाते हुए फ़र्स्ट-क्लास सबसे पीछे होता है ।


वापसी की यात्रा में इंजन की पोज़ीशन नहीं बदलती । यानी अब इंजन सबसे पीछे रहकर ट्रेन को पुश कर रहा होता है और फ़र्स्ट-क्लास सबसे आगे हो जाता है । कोच की बनावट ऐसी है कि आपको लगता है जैसे ट्रेन आप चला रहे हैं । ट्रेन में फ़र्स्ट-क्लास की सिर्फ़ 16 सीटें हैं । टिकट 101/- रुपये का है ।


इस वर्ल्ड-हैरिटेज-ट्रेन में दाख़िल होते हुए हम बड़े रोमांचित थे । और हमारे जैसा ही हाल उन दो प्रौढ़ ब्रिटिश कपल्स का था, जो इस सफ़र में हमारे सहयात्री थे ।


जैसे ही ट्रेन चली, सब के सब यात्री मस्ती के मूड में आ गये । हमारे लबों पर "बाग़बां" का गीत "चली चली.... फिर चली चली...." बरबस ही आ गया । बाहर का एक-एक नज़ारा बेहद दिलकश था । हर बोगी में रह-रह कर टूरिस्ट्स की किलकारियां गूंज उठती थीं । क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बूढ़े ! सब इस शोर में एक दूसरे का साथ दे रहे थे । ऐसे में हम और हमारे अंग्रेज़ साथी भला कैसे चुप रह सकते थे ! लिहाज़ा हम लोग भी पूरा मज़ा ले रहे थे अपनी इस पहली ’वर्ल्ड-हैरिटेज-टॉय-ट्रेन-जर्नी’ का ।


शोर-शराबा, ऊधम और गपशप करते-करते 45 मिनट कुछ ऐसे बीते, कि जैसे ही ट्रेन अचानक कुन्नूर स्टेशन पर पहुंची, हमारे मुंह से हैरानी-भरे यह शब्द निकले, "अरे ! इत्ती जल्दी ?" ब्रिटिशर्स भी हैरान थे, क्योंकि ट्रेन टाइम-टेबल में दिये गए वक़्त से पहले ही अपनी मंज़िल पर पहुंच गई थी ।


EPISODE 34:


ट्रेन से उतरने के बाद हमारे अंग्रेज़ सहयात्रियों ने प्योर इंडियन स्टाइल में हाथ जोड़कर हमें ’नमस्ते’ कहा और अपनी राह चले गए । हम लोग स्टेशन से बाहर आए और ऑटो पकड़कर ’सिम्स-पार्क’ चल दिये । अब तक हम यह तय कर चुके थे कि 12.30 बजे इसी ट्रेन से ऊटी वापस चले जाएंगे । हालांकि हमारा रिज़र्वेशन 4.30 बजे वाली ट्रेन का था, जिसमें हमें ’ड्रायवर’ बनने का सुख प्राप्त होता ।


 मगर हमारे पास टाइम कम था । दर-अस्ल अगले दिन बैंगलोर से दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी । पहले प्रोग्राम यह बना था कि 4 नवंबर का पूरा दिन कुन्नूर में बिता कर 5 नवंबर की सुबह ऊटी से डायरेक्ट बैंगलोर चले जायेंगे । मगर श्रीरंगपट्टनम की याद ने हमें इतना ज़्यादा बेचैन किया कि हमने 4 नवंबर को मैसूर पहुंचने और 5 नवंबर की सुबह श्रीरंगपट्टनम दुबारा जाने का प्रोग्राम बना लिया । इसके लिये ज़रूरी था कि हम जल्दी से जल्दी ऊटी पहुंचते । लिहाज़ा शाम की ट्रेन के रिज़र्वेशन को भूल कर दोपहर ही में ऊटी वापस जाने का फ़ैसला कर लिया ।


 बस्स.....! फ़टाफ़ट ’सिम्स पार्क’ पहुंचे और लगभग बारह हैक्टेयर में फैले इस बेहद खूबसूरत पार्क के सौन्दर्य को अपनी आंखों और अपने कैमरे, दोनों में क़ैद करने लगे । माहौल बेहद दिलकश और पुर-सुकून था । 


हम ख़ुश थे, और एक बार फिर उस टूर-ऑपरेटर को कोस रहे थे, जिसने इस अति-सुंदर पार्क से हमें दूर रखने की नाकाम ’साज़िश’ की थी । इस पार्क में अनेक क़िस्म के नायाब पेड़-पौधों, मख़मली घास और परिदों की रूह-अफ़्ज़ा चहचहाहट से लुत्फ़-अन्दोज़ होने के बाद हम वापस रेलवे-स्टेशन चल दिये ।


EPISODE 35:


स्टेशन पहुंच कर पहले तो रिज़र्वेशन कैंसिल कराने के लिये लाइन में लग गये । मगर तभी याद आया कि यह रिज़र्वेशन तो हमने ख़ुद ही किया था नेट से । लिहाज़ा कैंसिलेशन किसी काउंटर से नहीं हो सकता था । अब इतना टाइम तो था नहीं कि सायबर-कैफ़े ढूंढते । और न ही उस वक़्त हमारे मोबाइल में इंटरनेट सुविधा थी ।


 लिहाज़ा उस रिज़र्वेशन को भूलकर और ’ड्रायवर’ बनने का मोह त्याग कर हम ऑर्डिनरी टिकट ख़रीदने के लिये लाइन में खड़े हो गए । यहां हमें एक ’ज़ोर का, झटका धीरे से’ लगा । दर-अस्ल, रेलवे की वेबसाइट पर हमने देखा था कि कुन्नूर से ऊटी का ऑर्डिनरी टिकट 15/- रुपये का था । मगर यहां सिर्फ़ 3/- का मिला । अब पता नहीं यह ’नीलगिरि माउंटेन रेलवे’ की तरफ़ से दी जा रही कोई ’भारी ऑफ़-सीज़न छूट’ थी या कुछ और था । मगर यह जो भी था, हमारे मन में एक और ’क्वेस्शन-मार्क’ खड़ा करने वाला था । कि "यार, टिकट इतना सस्ता क्यों है?"


EPISODE 36:


अभी ट्रेन चलने में कुछ देर थी । सोचा, कुछ खा-पी लें । सो पहुंच गए स्टेशन पर मौजूद एकमात्र ’स्नैक्स-शॉप’ में । यहां जो हमने खाया, वो वाक़ई बेहद लज़ीज़ और सस्ता था । छोटे-छोटे समोसे और ’कर्ड-राइस’ ! आप भी जब वहां जायें, तो ज़रूर खाइयेगा । मज़ा आयेगा ।


निर्धारित समय पर ट्रेन चल पड़ी और ’चार-गाम-यात्रा’ से हमारी वापसी शुरू हो गई ।


इस रिटर्न-जर्नी में एक ऐसी बात हुई, जो मैं आपको बताना तो चाह रहा हूं, मगर सोचता हूं कि कहीं आप "छी...छी....." ना करें ! लेकिन इतना तो तय है कि पढ़कर आप को हंसी तो ज़रूर आयेगी ! चलो..... बताये देता हूं ।


EPISODE 37 :


दर-अस्ल हुआ यों, कि कुन्नूर स्टेशन के उन नन्हें-मुने समोसों में हमें इतना ज़्यादा मज़ा आया था कि हम अनगिनत समोसे डकार गए थे । जब ट्रेन चलने लगी, तो हमारे पेट में हल्की-सी हलचल हुई, मगर हमने ध्यान नहीं दिया और बाहर के नज़ारों में खो गए । लेकिन ’हलचल’ बनी रही । अब, "खिलौना-रेल" में तो "छोटा-घर" होता नहीं है, लिहाज़ा जब पहला स्टेशन ’वैलिंगटन’ आया, तो सोचा कि ’जाया’ जाय । मगर, इस रेल-रूट के सभी स्टेशंस पर ट्रेनें दो-तीन मिनट ही रुकती हैं, लिहाज़ा हम सोचने-सोचने में ही रह गए और ट्रेन चल भी पड़ी । हम फिर से अपना ध्यान इधर-उधर लगाने में लग गए ।


 लेकिन जैसे-जैसे ट्रेन रफ़्तार पकड़ने लगी, हमारी ’उदर-अस्थिरता’ भी बढ़ने लगी । हम अगले स्टेशन ’अरावनकाडु’ का इन्तेज़ार करने लगे, और जैसे ही ’अरावनकाडु’ आया, हम दौड़कर प्लेटफ़ॉर्म पर खड़े वर्दीधारी रेल-कर्मी के पास गए और उसे अपनी समस्या बताई । लेकिन उसने हमारे मसले को गम्भीरता से नहीं लिया और बोला, "नो-नो ! इदर इतना देर नईं रुकता ऐ !" हम "लौटके बुद्धू घर को आए" वाले अन्दाज़ में मुंह लटकाए वापस ट्रेन में आए और अपनी सीट पर बैठकर एक बार फिर से "ग़म भुलाने’ की कोशिश करने लगे ।


 मगर हमारी आंतें तो शायद मिस्र की जनता की तरह बग़ावत करने का पक्का इरादा कर चुकी थीं ! अत: ’आन्दोलन’ फिर शुरू हो गया । हम बड़े परेशान ! करें तो क्या करें !


EPISODE 38:


अचानक मन में मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ गूंजने लगी और हमने "ओ दुनिया के रखवाले... सुन दर्द भरे मेरे नाले..." स्टाइल में दुआएं मांगना शुरू कर दिया । (हुस्नी मुबारक ने भी मांगी होंगी) । दुआएं मांगते-मांगते "केट्टी" स्टेशन गुज़र गया । हमने सोचा कि "चलो अब सिर्फ़ ’लवडेल’ स्टेशन ही रह गया है । फिर ’उडागामंडलम’(ऊटी) आ ही जाएगा।" लिहाज़ा, अपने मन को समझाते हुए हम "तेरी है ज़मीं... तेरा आसमां...... तू बड़ा मेहरबां तू बख़्शिश कर...." गाते रहे । 


तभी ट्रेन यकायक बीच में ही रुक गई । ट्रैक पर काम चल रहा था । ’अब चले-अब चले’ करते-करते कई मिनट गुज़र गए । मगर उस दिन तो रेल-डिपार्टमेंट ने मानो हमारी खाट खड़ी करने की क़सम खा ली थी ! लिहाज़ा ट्रेन टस-से-मस नहीं हुई । इधर ’आन्दोलन’ उग्र हो रहा था । एक पल को तो सोचा कि "अभी तो ट्रेन खड़ी ही है । क्यों ना किसी झाड़ी में ’छिप’ जायें ! मगर तभी ट्रेन चल पड़ी और हम फिर से "ऐ मालिक तेरे बन्दे हम....." की मुद्रा में आ गए ।


EPISODE 39 :


मगर न जाने हमारी उन संगीतमय प्रार्थनाओं में क्या कमी रह गई, कि ’आंदोलन’ अचानक चरम सीमा पर पहुंच गया और ’स्थिति नियन्त्रण से ऐसी बाहर हुई कि हम अपनी दुआ, प्रार्थना, आराधना, उपासना, वन्दना, पूजा आदि सब कुछ भूलकर बेचैनी के आलम में खड़े हो गए, बेताबी से ’लवडेल’ का इन्तिज़ार करने लगे और जैसे ही ’लवडेल’ आया, हम अपने सहयात्रियों और प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद इक्का-दुक्का लोगों को हैरान करते हुए ट्रेन के इंजन की तरफ़ दौड़ पड़े । यह सब कुछ बेहद तेज़ी से और ख़ुद-ब-ख़ुद हो रहा था ।


 इंजन के पास पहुंचकर हमने ड्रायवर को जल्दी-जल्दी अपना दुखड़ा सुनाया और "प्लीज़ रुके रहना" कहकर वाशरूम की तरफ़ भाग लिये । ड्रायवर ’सुनकर’ तो शायद हमारी बात नहीं समझा, मगर हमारी ’दशा’ और भागने की’ ’दिशा’ देखकर ज़रूर समझ गया था कि माजरा क्या है, क्योंकि जब सिर्फ़ दो मिनट के बाद ही हम अपने चेहरे पर असीम सुकून और अपने लबों पर "इससे बड़ा कोई सुख नहीं" जैसे डायलॉग्ज़ लेकर बेल्ट बांधते, दौड़ते हुए वापस आये, तो वह न सिर्फ़ मुस्कुरा रहा था, बल्कि "कोई बात नहीं, अब फ़टाफ़ट ट्रेन में आ जाओ" जैसे इशारे भी कर रहा था ।


 हमने नोट किया कि दूसरे सभी लोग, जो कुछ देर पहले हमें पी.टी.ऊषा का पुरुष संस्करण बनते देख हैरान थे, अब ख़ुद ही सारा मामला समझ कर मुस्कुरा रहे थे । एक-दो ने तो हमें "होता है-होता है" जैसे सांत्वनात्मक वचन बोलकर हमारी झेंप को कम करने की भी कोशिश की । हम नक़ली मुस्कुराहट लिये अपनी सीट पर गद्दी-नशीन हो गए और ट्रेन चल पड़ी । कुछ ही देर में हम ऊटी पहुंच गए और होटल में जाकर अपना तान-तमूरा समेटने लगे क्योंकि हमें श्रीरंगपट्टनम के सपने दिन-दहाड़े आये जा रहे थे ।


EPISODE 40:


मैसूर की बस पकड़ने के लिये जब हम होटल से निकलकर बस-स्टेशन पहुंचे, तो हल्की फुहार पड़ रही थी । बस-स्टेशन की कुरूपता ने हमें बड़ा निराश किया । हम नहीं समझ पाए कि ऐसे मशहूर और ख़ूबसूरत पर्यटन-स्थल का बस-स्टेशन क्यों इतना बदसूरत है । 


ख़ैर ! तमिलनाडु परिवहन निगम की बस में आसानी से सीट हासिल करने के बाद हमारा सफ़र शुरू हुआ । रास्ते में कई जगह तेज़ बारिश भी मिली, जिसने सफ़र का मज़ा और भी बढ़ा दिया । टाइगर-रिज़र्व से दुबारा गुज़रकर रोमांचित होते हुए शाम को जब मैसूर शहर में दाख़िल हुए, तो एक जगह ताजमहल देखकर ठिठक गए । एक लमहे को तो लगा कि कहीं आगरा तो नहीं पहुंच गए ! दर-अस्ल वहां एक ऐग्ज़ीबिशन लगी हुई थी जिसमें ताजमहल का विशाल और भव्य प्रतिरूप बनाया गया था ।


दक्षिण-भारत के उस नक़ली ताजमहल को देखने के बाद जैसे ही मैसूर-पैलेस के पास से गुज़रे, पैलेस की ख़ूबसूरत लाइटिंग ने मन मोह लिया । मैसूर-पैलेस की यह विशेष लाइटिंग सिर्फ़ त्योहारों और ख़ास दिनों में ही होती है । हम लकी रहे, क्योंकि उस रात छोटी दीवाली थी । रौशनी में नहाया हुआ पैलेस बहुत ही सुन्दर लग रहा था ।


बस-अड्डे पर बस से उतर कर दुबारा उसी होटल की जानिब चल पड़े, जिसमें पहले रुके थे । जैसे ही होटल के अंदर क़दम रखा, रिसेप्शनिस्ट हमें फिर से आया देख कर एक हैरानी भरी "अरे !" बोलते-बोलते रुक गया और तुरन्त हमारा सामान हमारे मन-पसंद कमरे में भिजवाने का प्रबंध करने लगा ।


EPISODE 41:


अगली सुबह हम तैयार थे श्रीरंगपट्टनम जाने के लिये ! लेकिन हमारी ’बैटर-हाफ़’ आराम फ़रमाना चाहती थीं । बाल-गोपाल भी उनका साथ दे रहे थे । लिहाज़ा उन लोगों की ’भावनाओं को समझते हुए’ हम ’एकला चलो रे’ गाते अकेले ही बस-अड्डे की तरफ़ चल पड़े । वहां से बस पकड़कर श्रीरंगपट्टनम पहुंचने में मात्र आधा घंटा लगा ।


चूंकि समय कम था और जगह नई ही थी इसलिये एक ऑटो-रिक्शा पकड़ा और चल दिये फ़र्स्ट राउंड में देखने से रह गए टूरिस्ट-स्पॉट्स की जानिब ! सबसे पहले पहुंचे ’दरिया-दौलत-बाग़’ । यह एक ख़ूबसूरत बाग़ है जिसमें टीपू सुल्तान का एक छोटा-सा महल भी है । अब इस महल को म्यूज़ियम की शक्ल दे दी गई है । यहां टीपू सुल्तान की कई यादगारें संजोई गई हैं । 


तेज़-तेज़ क़दमों से चलते हुए जल्दी-जल्दी इस म्यूज़ियम और बाग़ की सैर करने के बाद हमारा अगला पड़ाव था ’टीपू सुल्तान का मक़बरा’ यानी ’गुम्बज़’ । इस मक़बरे में टीपू सुल्तान के साथ-साथ उनकी वालिदा फ़ख़रुन्निसा उर्फ़ फ़ातिमा और वालिद हैदर अली भी दफ़्न हैं । मक़बरा परिसर में टीपू के अन्य सम्बंधियों की क़ब्रें भी हैं । साथ ही एक ख़ूबसूरत मस्जिद भी है जिसका नाम ’मस्जिद-ए-अक़्सा’ है ।


 यहां भी हम सब कुछ जल्दे-जल्दी ही देख रहे थे । हमारी नज़रें बार-बार अपने मोबाइल पर जा रही थीं । नहीं नहीं.....! किसी की कॉल नहीं आ रही थी भई ! हम तो उसमें टाइम देख रहे थे ! यहां बताते चलें, कि जबसे हमारे हाथों में यह ’तार-विहीन दूरभाष-यंत्र’ आया है, तबसे हम कलाई पर घड़ी बांधना एक बोझ समझते हैं । इतना ही नहीं ! हम इस यंत्र में उपलब्ध सभी सुविधाओं का भरपूर उपभोग करते हैं । ख़ैर ।


EPISODE 42:


’गुम्बज़; से निकलकर जहांपनाह का ’त्रिचक्रीय मोटर चलित वाहन’ अर्थात ’ऑटो’ पहुंचा ’संगम’ पर ! ऊंहूंह... कमॉन यार ! ’संगम’ क्या सिर्फ़ इलाहाबाद में ही हो सकता है ? आय ऐम टॉकिंग अबाउट द ’संगम’ ऑफ़ ’श्रीरंगपट्टनम’ ! और हां, याद दिलाता चलूं कि ’संगम’ मैसूर में भी है ! अरे ? भूल गये ? अजी हुज़ूर, ’संगम’ नाम के सिनेमा-हॉल के नज़दीक वाले होटल में ही तो ठहरे थे हम मैसूर में ! याद आया न ? ख़ैर ! 


चलिये वापस चलें श्रीरंगपट्टनम वाले ’संगम’ की ओर ! दर-अस्ल यह वो प्वाइंट है जहां कावेरी और लोक-पावनी नाम की दो नदियां आपस में मिलती हैं । यहां हमें कोई ख़ास चीज़ नहीं दिखी, सिवाय गोलाकार नावों के ! इन टोकरा-नुमा नावों में टूरिस्ट्स नौका-विहार कर रहे थे, मगर हमने नहीं किया । कारण ? वही ! टाइम की कमी !


श्रीरंगपट्टनम में कुछ और जगहों पर जाने का मन था, मगर अपनी इच्छाओं का दमन करके मैसूर वापस आना पड़ा, क्योंकि हमारी इस ’चार-गाम-यात्रा’ का ’वीज़ा’ उसी दिन ख़त्म हो रहा था और हमें जल्दी से जल्दी बैंगलोर पहुंच कर रात ही में दिल्ली की ट्रेन पकड़नी थी ।


EPISODE 43:


मैसूर के उस होटल में दूसरी बार अपना बोरिया-बिस्तर लपेटने के बाद हम बस-अड्डा आये और बैंगलोर जाने वाली बस में धंस गये । कुछ ही देर बाद हम पांच दिनों में पांचवीं बार मैसूर शहर की सीमा से बाहर निकल रहे थे ! जी हां, पांचवीं बार । अब आप पूछेंगे कि पांचवीं बार कैसे? तो साहब, वो ऐसे, कि यहां से पहली बार तो श्रीरंगपट्टनम-वृन्दावन गार्डन जाने के लिये निकले थे, दूसरी बार चामुंडी हिल जाने के लिये, तीसरी बार ऊटी, चौथी बार दुबारा श्रीरंगपट्टनम और अब वापस बैंगलोर जाने के लिये ! हो गया न पांच बार ? बहरहाल !


दक्षिण भारत की अपनी पहली यात्रा में बीते अपने इस यादगार हफ़्ते पर चर्चा करते, कुछ ऊंघते, कुछ खिड़की से बाहर निहारते, लगभग साढ़े तीन घंटे की बस-यात्रा करने के बाद जब हम बैंगलोर बस-अड्डा पहुंचे तो वह बस-अड्डा हमें कुछ अंजाना-सा लगा । कुछ देर कबूतर की तरह गर्दन घुमाने के बाद ग्यान-प्राप्ति तब हुई, जब एक साहब ने यह बताया कि "यह ’सैटेलाइट बस-अड्डा’ है । मेन बस-अड्डा जाने के लिये यहां से सिटी-बस पकड़िये ।"


हमें ’मेन बस-अड्डा’ जाना ही था, क्योंकि रेलवे-स्टेशन भी वहीं था । लिहाज़ा धड़धड़ाते हुए घुस पड़े एक सिटी-बस में ! मगर अंदर पहुंचते ही एक पल को सकपका गए, क्योंकि जिस कंडक्टर के कंधे को छूकर हमने "ज़रा हटना भाई !" कहा था, वह ’भाई’ नहीं, ’बहन’ थी । अब हमारे मुंह से ’सॉरी’ के अलावा और क्या निकलना था !


इस सिटी-बस में खड़े-खड़े लगभग 15 मिनट यात्रा करने के दौरान हमें अचानक अहसास हुआ कि हमने कन्नड़ और तमिल भाषा के दो ’महत्त्वपूर्ण’ शब्द सीख लिये हैं । ये शब्द हैं, "रएट-रएट-रएट" और "पोड़े-पोड़े-पोड़े" । इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है, यानी "चलो-चलो-चलो", और इन शब्दों का इस्तेमाल बसों के कंडक्टर-गण अपने ड्रायवर साथियों की सहायता के लिये करते हैं ।


EPISODE 44:


शाम 6 बजे के आसपास हम रेलवे-स्टेशन में दाख़िल हुए । फ़ैमिली को एक बार फिर प्लेटफ़ॉर्म पर छोड़ा और फिर स्टेशन के बाहर आ गए, क्योंकि हम पहले ही तय कर चुके थे कि दिल्ली की ट्रेन पकड़ने से पहले दरगाह से कुछ दूरी पर स्थित बेकरी से केक-बिस्किट वग़ैरा ज़रूर लेकर जाएंगे ।


 ट्रेन चलने के समय में दो घंटे से भी ज़्यादा वक़्त बाक़ी था, लिहाज़ा चहलक़दमी करते हुए पहुंच गए दरगाह वाले इलाक़े में । दरगाह के अंदर और बाहर काफ़ी भीड़ थी । पता चला कि जुमे के दिन यहां इसी तरह श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है । चींटी की रफ़्तार से रेंग रहे ट्रैफ़िक के बीच सांप की तरह लहराते-बल खाते हम बेकरी पहुंचे और सभी मनपसंद आयटम्स ख़रीद लिये । फिर वैसे ही "मैं तेरी दुश्मन... दुश्मन तू मेरा..." वाली श्रीदेवी की तरह बल-खाते, इठलाते, ट्रैफ़िक के बीच से रास्ता बनाते वापस आये और प्लैटफ़ॉर्म पर चाय सुड़क रहे अपने परिवार से जा मिले ।


EPISODE 45:


ट्रेन चलने में अभी भी काफ़ी समय था, लिहाज़ा प्लैटफ़ॉर्म पर इधर उधर नज़रें दौड़ाने में लग गये । यहां हमने कुछ चीज़ें ऐसी देखीं, जो उस वक़्त हमारे लिये नई थीं । ये चीज़ें थीं, बैट्री से चलने वाली वो ’मोटर-ट्रॉलियां’ जो बुज़ुर्गों, मरीज़ों और विकलांगों को लाती-ले जाती हैं, यात्रियों का रिज़र्वेशन-स्टेटस दिखाने वाला ’इलैक्ट्रॉनिक चार्ट’ और ट्रेनों की बोगीज़ के बाहर गाड़ी का नाम और नंबर प्रदर्शित करता ’इलैक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड’ ।


इन चीज़ों पर हम चर्चा कर ही रहे थे, कि हमारी ट्रेन को दूसरे प्लैटफ़ॉर्म पर लगाए जाने का अनाउंसमेंट हुआ । बातों का सिलसिला वहीं रुक गया और हम एक-दूसरे से ’पोड़े-पोड़े’ और ’रएट-रएट’ कहते हुए अपना सामान उठाकर फ़ुट-ओवर-ब्रिज की ओर चल दिये । हर तरफ़ से पटाख़ों की आवाज़ों को सुनते, आसमान पर हो रही मनमोहक आतिशबाज़ी को निहारते, और दीवाली के शुभ अवसर पर पूरी हो रही अपनी इस ’चार-गाम-यात्रा’ के सुखद समापन से संतुष्ट, हम उस प्लैटफ़ॉर्म की जानिब बढ़े चले जा रहे थे जहां ’निज़ामुद्दीन राजधानी’ हमारी ’सफल, सुखद और मंगलमय’ यात्रा की कामना करती हुई हमें वापस दिल्ली ले जाने के लिये तैयार खड़ी थी । (समाप्त )

सोमवार, 16 मई 2011

Birds Story - परिंदे कितने - Story For Children - Hindi - Urdu

Birds Story - परिंदे कितने - Story For Children - Hindi - Urdu


To listen this story, visit this link : 

https://youtu.be/-ADUbu8NZTw

To know the meanings of the difficult Urdu words, visit : 

https://youtu.be/0_MVSehqRug


बैठे-बैठे एक दिन सोचा ये इक सुल्तान ने

’सल्तनत में हैं परिंदे कितने, क्यों ना जान लें !’


बस उसी लम्हा वज़ीर-ए-ख़ास को बुलवा लिया

और फिर सुल्तान ने कुछ इस तरह उस से कहा


"है हमारी सल्तनत में लोगों की तादाद क्या

जानते हैं बात ये तो हम बहुत अच्छी तरह


कितनी नदियां, कितने कूएं और कितने हैं तलाब

ये भी है हमको पता, रक्खा हुआ है सब हिसाब


बात इक लेकिन है ऐसी जो नहीं हमको पता"

सर वज़ीर-ए-ख़ास ने ख़म करके पूछा, "वो है क्या?"


इक अदा-ए-बादशाही से कहा सुल्तान ने

"ऐ वज़ीर-ए-ख़ास, इस पर आप फ़ौरन ध्यान दें


सल्तनत में कुल परिंदे जितने भी आबाद हैं

जानना चाहते हैं हम ये, उनकी क्या तादाद है


तुम अभी फ़ौरन ही जाओ, और करो जाकर पता

तीन दिन के अंदर-अंदर हम को देना तुम बता


और अगर तादाद उनकी तुम नहीं बतला सके

सूली पे फिर तो यक़ीनन हम चढ़ा देंगे तुम्हें !"


"ठीक है" कहकर वज़ीर-ए-ख़ास ने सर ख़म किया

काम था लेकिन बड़ा मुश्किल, जो सुल्तां ने दिया


सोचता था वो कि ’किस तरहा से ये गिनती करूं

ये नहीं मुमकिन मगर सुल्तान से कहते डरूं


इसको ’ना’ सुनने की आदत तो ज़रा भी है नहीं

’ना’ अगर मैंने कहा तो जां से ना जाऊं कहीं ।’


सोचकर ये सब वज़ीर-ए-ख़ास उलझन में पड़ा

वाक़ई गिनना परिंदों का तो था मुश्किल बड़ा


आख़िर उसको सूझी इक तरकीब, उसने यूं किया

तीन दिन के वास्ते दरबार से ग़ायब हुआ


तीन दिन के बाद जब हाज़िर हुआ दरबार में

शक्ल उसकी डूबी लगती थी किसी असरार में


बा-अदब हो कर वो ये सुल्तान से कहने लगा

"सल्तनत में हैं परिंदे जितने, सब को गिन लिया ।"


बात ये सुल्तान सुन कर ख़ुश बड़ा ही हो गया

हँस के बोला "तुम गिनोगे, मुझ को ये मालूम था


अब ज़रा जल्दी बता दो कितनी कुल तादाद है

उन परिंदों की, कि जिनसे सल्तनत आबाद है ।"


"जो हुकम" कहकर वज़ीर-ए-ख़ास बतलाने लगा

सब परिंदों की वो गिनती उसको गिनवाने लगा


"सब परिंदों का है मेरे पास आदाद-ओ-शुमार

मोर हैं छब्बीस सौ और तोते पैंतालिस हज़ार


कुल कबूतर साठ हज़ार और मैना छ: सौ आठ हैं

सत्रह सौ अस्सी हैं कव्वे, बुलबुलें बस साठ हैं


फ़ाख़्ता ग्यारह सौ नव्वे, उल्लू लेकिन तीस हैं

कोयलें उन्नीस सौ, हुदहुद तो दो सौ बीस हैं


गिद्ध इक्किस सौ बयालिस, चीलें हैं तेरह सौ नौ

और अबाबीलों की गिनती इक हज़ार और पांच सौ ।"


सारी गिनती सुन के वो सुल्तान ये कहने लगा

"जांच करवाएंगे गिनती की, ये तुम सुन लो मियां !


और ज़रा सा फ़र्क़ भी गिनती में गर हमको मिला

तुम को बख़्शेंगे नहीं तब, सख़्त देंगे हम सज़ा ।"


तब वज़ीर-ए-ख़ास बोला, "बात ऐसी है हुज़ूर

जांच तो गिनती की मेरी, आप करवाएं ज़रूर


गिनती लेकिन आज की है, एक मुश्किल आएगी

कल यक़ीनन गिनती ये तब्दील हो ही जाएगी


कुछ परिंदे उड़ के जाएंगे कहीं, कुछ आएंगे

और कुछ पैदा भी होंगे, कुछ तो मर भी जाएंगे ।"


सुन के ये सुल्तान वो, ख़ामोश कुछ लम्हे हुआ

फिर यकायक हँस के वो कुछ इस तरह कहने लगा


"अक़्लमंदी को तुम्हारी हम तो करते हैं सलाम

पांच सौ सोने के सिक्कों का तुम्हें देंगे इनाम ।"


अक़्लमंदी का वज़ीर-ए-ख़ास को देखो सिला

चमचमाते सोने के सिक्कों की सूरत में मिला ।

(Poet - मुईन शमसी) (All rights reserved)



Fox and Crow story in Hindi - कव्वा और लोमड़ी | Story Poem

Fox and Crow story in Hindi - कव्वा और लोमड़ी - Story Poem


To listen this story, visit here : 

https://youtu.be/y3wXWmWrR8Q 

To know the meanings and pronunciation of the difficult Urdu words used in this poem, visit here : 

https://youtu.be/PgpAySj94yc 


एक दिन की बात है इक कव्वा था भूका बड़ा,,

सुबहा से इक भी न दाना पेट में उसके पड़ा ।


ढूंढने खाने की अशया घूमता था दर-ब-दर,,

तब यकायक एक शय पर उसकी जा पहुंची नज़र ।


पास जाकर देखने से भूक उसकी बढ़ गई,,

एक रोटी थी रखी जो घी में थी चुपड़ी हुई ।


एक लम्हा देर की ना रोटी पकड़ी चोंच में,,

’बैठकर किस जगहा खाऊं’ वो लगा ये सोचने ।


शाख़ पे इक पेड़ की ऊंचे, पड़ी उसकी नज़र,,

थी मुनासिब जगहा फ़ौरन उड़ के पहुंचा डाल पर ।


देर कुछ भी ना हुई थी उसको बैठे पेड़ पे,,

चलते-चलते लोमड़ी इक ठहरी उसको देख के ।


घी लगी रोटी को देखा मुंह में पानी आ गया,,

रूखा-सूखा खा के उसका जी भी था उकता गया ।


राल टपकाते हुए वो सोचने तब ये लगी,,

’काश मिल जाए मुझे ये रोटी जो है घी भरी’ ।


’है मगर दुशवार रोटी करना हासिल कव्वे से,,

बेवक़ूफ़ इसको बनाऊं अक़्ल के इक जलवे से’ ।


सोच के तरकीब इक वो कव्वे की जानिब गई,,

और फिर शीरीं ज़बां से उससे ये कहने लगी :


"कव्वे भाई कव्वे भाई, तुमको कुछ मालूम है?,,

शक्ल है भोली तुम्हारी और बड़ी मासूम है ।"


बात उसकी सुनके कव्वा खाते-खाते रुक गया,,

चोंच में रोटी दबाए देखने उसको लगा ।


जब न खोला उसने मुंह तो लोमड़ी कहने लगी,,

"कव्वे भाई, बात मेरी ग़ालिबन समझे नहीं ।"


फिर भी कव्वा चुप रहा बोला नहीं इक लफ़्ज़ भी,,

देख के उसकी ख़मोशी लोमड़ी कहने लगी :


"कव्वे भाई, ये तुम्हारे पर भी कितने ख़ूब हैं,,,

जो भी देखे उसको भाएं तुम से ये मन्सूब हैं ।


प्यारे-प्यारे काले-काले हैं ये चमकीले बड़े,,

देखने वाले कई हैं इश्क़ में इनके पड़े ।


यूं तो जंगल में परिंदे उड़ते फिरते हैं कई,,

ख़ूबसूरत इतने लेकिन पर किसी के हैं नहीं ।"


इतना कह के चुप हुई कुछ देर को वो लोमड़ी,,

दिल ही दिल में इस तरह कुछ अपने थी वो सोचती ।


’बस ज़रा सा खोल दे मुंह और कव्वा कुछ कहे,,

मुंह में रख कर भाग जाऊं जैसे ही रोटी गिरे ।’


लोमड़ी के दिल की हसरत पूरी ना उस दम हुई,,

ख़ुश तो कव्वा हो गया लेकिन रहा ख़ामोश ही ।


लोमड़ी हिम्मत न हारी एक कोशिश और की,,

मुस्कुरा के इक अदा से कव्वे से कहने लगी :


"कव्वे भाई, बात का मेरी ज़रा कर लो यक़ीं,,

एक ख़ूबी और तुम में है जो औरों में नहीं ।


सच मैं कहती हूं ज़रूरत झूट की क्या है भला,,

सब से ज़्यादा है सुरीला बस तुम्हारा ही गला ।


तुम तरन्नुम में हो गाते, क्या तुम्हारी शान है !,,

वाक़ई तुम को सुरों की पूरी ही पहचान है ।


’कांव’ की मीठी सदा जब छेड़ देते हो कभी,,

छोड़ के सब काम अपने, सुनने लगते हैं सभी ।"


इस क़दर तारीफ़ सुन के कव्वा चुप ना रह सका,,

खोल के मुंह "शुक्रिया प्यारी बहन" कहने लगा ।


ज्यों ही मुंह कव्वे ने खोला, रोटी नीचे आ गई,,

लोमड़ी तो ताक में थी, झट उठा के खा गई ।


घी लगी रोटी को खा के इक डकार उसने लिया,,

इक लगाया क़हक़हा और कव्वे से कुछ यूं कहा :


"तुम से बढ़ कर बेवक़ूफ़ इस दुनिया में कोई नहीं,,

मैं चली, अब ’कांओं-कांओं’ करते बैठो तुम यहीं ।"


इतना कह के लोमड़ी तो घर को अपने चल पड़ी,,

बेवक़ूफ़ी पड़ गई कव्वे को वो महंगी बड़ी ।

---मुईन शमसी (All Rights Are Reserved)



शनिवार, 7 मई 2011

’मदर्स-डे’ स्पेशल (Maa ka pyaar) | Mothers Day Poem | Maa ki Shayari

 ’मदर्स-डे’ स्पेशल (Maa ka pyaar) | Mothers Day Poem | Maa ki Shayari

सबसे पावन, सबसे निर्मल, सबसे सच्चा मां का प्यार 
सबसे अनोखा, सबसे न्यारा, सबसे प्यारा मां का प्यार । 

 बच्चे को ख़ुश देख-देख के, मन ही मन हंसता रहता
 जब संतान पे विपदा आए, तड़प ही उठता मां का प्यार ।

 सुख की ठंडी छांव में शीतल पवन के जैसा लहराता 
दुख की जलती धूप में सर पे साया बनता मां का प्यार ।

 मिल जाएगा यूं तो जग में, कोई विकल्प हर रिश्ते का 
बेमिसाल है, लाजवाब है, बड़ा अनूठा मां का प्यार । 

 करता शीश झुका कर विनती ’शमसी’ यही विधाता से 
’जैसे मुझको दिया है, या रब ! सब को देना मां का प्यार ।’ 

To listen this poem, visit this link :

(प्रस्तुत रचना के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं । इसका अव्यावसायिक उपयोग मेरे नाम के साथ कहीं भी किया जा सकता है । व्यावसायिक उपयोग के लिये मेरी लिखित अनुमति लेना आवश्यक है...मुईन शम्सी)

सोमवार, 2 मई 2011

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश 

था किसी दरिया किनारे, इक घना जंगल कभी,, 
जानवर बेहद वहां थे चैन से रहते सभी । 

 उस घने जंगल के अंदर रहता इक ख़रगोश था,,
 बर्क़-रफ़्तारी के मद में अपनी वो मदहोश था ।

 सोचता ख़रगोश "कितना तेज़ हूं मैं दौड़ता,, 
जब मैं दौड़ूं, सबको पीछे जाता हूं मैं छोड़ता ।

 मुझसे ज़्यादा तेज़ कोई दौड़ सकता ही नहीं,, 
संग मेरे दौड़ ले वो, जिसको ना आए यक़ीं ।"

 एक दिन मग़रूर होके सबसे वो कहता फिरा,, 
"मेरे जैसा तेज़ दौड़े, है कोई ना दूसरा ।" 

 सर हिलाया सब ने उसकी बात सुन, अस्बात में,,
 दम न कछुए को लगा लेकिन कोई इस बात में ।

 बोला वो ख़रगोश से "बिल्कुल ग़लत कहते हो तुम,, 
जानते कुछ हो नहीं, बस ख़ुद में ही रहते हो गुम । 

 जानवर हैं और भी, जो तुमसे ज़्यादा तेज़ हैं,, 
बर्क़-रफ़्तारी की ताक़त से बड़े लबरेज़ हैं ।"

 इक सुनी ना लेकिन उस ख़रगोश ने कछुए की बात,,
 हो गई उनमें बहस, उट्ठे भड़क उनके जज़बात ।

 बढ़ गई जब बात ज़्यादा, कछुआ बोला जोश में,,
 "ना ग़ुरूर इतना करो, आओ मियां तुम होश में । 

 ना मचाओ शोर नाहक़, एक दिन ऐसा करो,, 
तुम को तो मैं ही हरा दूं, संग मेरे दौड़ लो ।" 

 बात कछुए की सुनी तो ज़ोर से हंसने लगा,,
 हंसते-हंसते कछुए से ख़रगोश ये कहने लगा :

 "मुझसे ना जीतेगा नादां, क्या तेरी औक़ात है !,, 
दिन कोई कर ले मुक़र्रर, बाज़ी मेरे हाथ है ।" 

 बोला कछुआ दिल में, ’उस दिन ही पता चल जाएगा,,
 दौड़ूंगा जब संग तेरे, जीत तू ना पाएगा ।’ 

 अल-ग़रज़ जुम्मे के दिन को दौड़ होना तय हुई,, 
’जीतेगा ख़रगोश ही’ ये सोचता था हर कोई । 

 आया दिन जब दौड़ का तो हो गए सब ही जमा,,
 इक अनोखी दौड़ का लेना सभी को था मज़ा । 

 फ़ैसला करने की ख़ातिर हाथी बुलवाया गया,, 
दौड़ेंगे दोनों कहां तक, ये भी तय पाया गया ।

 इब्तिदा फिर दौड़ की वक़्त-ए-मुक़र्रर पर हुई,, 
इल्म ना ख़रगोश को था, उसकी क़िस्मत है सोई ।

 यूं तो इक लम्हे में ही ख़रगोश आगे हो गया,,
 हौले-हौले धीरे-धीरे कछुआ भी चलता रहा । 

 पहुंचा थोड़ी दूर तो ख़रगोश को आया ख़याल,,
 ’जीत जाए मुझ से ये कछुआ, नहीं इसकी मजाल !

 काफ़ी आगी आ गया हूं, क्यूं न मैं ऐसा करूं,, 
जब तलक पहुंचे यहां वो, तब तलक इक नींद लूं !’

 सोच कर ये बात, वो ख़रगोश साहब सो गए,, 
नींद में भी जीत के ख़्वाबों में ही वो खो गए । 

 कछुआ लेकिन था सुबुक-रफ़्तार, सो चलता गया,, 
राह में ख़रगोश को सोते हुए देखा किया । 

 रफ़्ता-रफ़्ता ख़ामुशी से कछुआ आगे बढ़ गया,, 
बेख़बर इस बात से ख़रगोश, सोता ही रहा ।

 नींद जब टूटी तो सोचा ’अब भी काफ़ी वक़्त है,, 
वास्ते कछुए के शायद दौड़ ये तो सख़्त है ।

 ख़ैर ! मुझ को क्या है मतलब ! मैं तो चल ही देता हूं,, 
जा के मंज़िल पे, फ़तह का तमग़ा ले ही लेता हूं ।’ 

 पहुंचा लेकिन जब वो मंज़िल पे, तो मायूसी हुई,, 
कछुए ने पहले पहुंच कर, दौड़ थी वो जीत ली । 

 कर ही क्या कर सकता था अब वो, बस यही सोचा किया,, 
’काश मैं सोता नहीं, तो दौड़ मैं ही जीतता ।’ 

 काम जो मुमकिन नहीं था, कछुए ने वो कर दिया,, 
मात दी ख़रगोश को, दिल उसका ग़म से भर दिया । 

 सच कहा है ये किसी ने, ’ना कभी करना ग़ुरूर,, 
और गर हो काम मुश्किल, कोशिशें करना ज़रूर ।

 एक दिन तुम भी यक़ीनन अपनी मंज़िल पाओगे,, 
हां हुए मग़रूर गर तुम, तो बहुत पछताओगे ।’ 
(कवि : मुईन शमसी) 
(इस रचना के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं । पूर्ण या आंशिक प्रयोग लेखक की अनुमति से ही किया जा सकता है )

इस कविता को सुनना चाहें, तो इस लिंक पर आएं : 

इस नज़्म में इस्तेमाल हुए किसी शब्द का अर्थ जानना चाहें, तो ये लिंक्स खोलें : 


गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़
दास्ताँ इक बाग़ की तुमको सुनाता हूँ मैं आज,,
था जहां चारों तरफ़ सब्ज़ा-ओ-हरियाली का राज ।

थे परिंदे चहचहाते डाल पे हर पेड़ की,,
बहती थी ठंडी हवा पेड़ों की शाख़ें छेड़ती ।

हर तरफ़ उड़ती फिरा करती थीं रंगीं तितलियां,,
भौंरे फूलों के रुख़ों पे करते थे अठखेलियां ।

खेलने को बाग़ में बच्चे भी आया करते थे,,
आ तो जाते, बाग़ के मालिक से लेकिन डरते थे ।

ख़ूब ही ऊधम किया करते रोज़ाना बाग़ में,,
थी भरी बेहद शरारत बच्चों के दिमाग़ में ।

मार के पत्थर दरख़्तों से वो फल थे तोड़ते,,
कूदते और फांदते थे, भागते और दौड़ते ।

बाग़ का मालिक था कौन, अब तुम को ये बतलाता  हूँ,,
लम्बे-चौड़े देओ से बच्चो तुम्हें मिलवाता हूँ 

ये है मालिक बाग़ का, ये बच्चो को धमकाता है,,
शक्ल इसकी देख के हर बच्चा भाग जाता है ।

दिन में भी ये देओ बच्चो सोता ही बस रहता था,,
शोर सुनके जाग जाता, दहाड़ कर ये कहता था :

"भाग जाओ भाग जाओ, इधर कभी ना फिर आना,,
तुम्हें पकड़कर बंद करूंगा, पानी मिलेगा ना दाना ।"

बच्चे डर कर भाग जाते, लेकिन फिर आ जाते थे,,
दिन में अगर इक बार न खेलें, चैन नहीं वो पाते थे ।

पाने को छुटकारा बच्चों से ये सोचा देओ ने,,
’कोई तरकीब ऐसी हो, बच्चे ना आएं खेलने ।’

देर तक सोचा किया वो, तब ये सूझा देओ को,,
’बाग़ के चारों तरफ़ इक ऊंची-सी दीवार हो ।

रास्ता ही दाख़िले का जब मिलेगा ना कोई,,
वो सभी शैतान बच्चे आ ना पाएंगे कभी ।’

ये ख़याल आते ही उसने मेमारों से बात की,,
कुछ दिनों में इक ऊंची दीवार वहां पे बन गई ।

दाख़िला बच्चों का सचमुच बाग़ में बंद हो गया,,
बे-फ़िकर होके वो देओ नींद गहरी सो गया ।

दिन गुज़रने देओ के कुछ इस तरह से अब लगे,,
जब भी दिल चाहे सो जाए, और जब चाहे जगे ।

वक़्त गुज़रा, बदला मौसम, आ गई हर सू बहार,,
हर कली पे, फूल और पेड़ों पे भी आया निखार ।

सब तरफ़ रौनक़ थी लेकिन बाग़ मुरझाया रहा,,
पेड़ भी सूखे रहे और फूल भी इक ना खिला ।

देखा जब ये देओ ने, मायूस बेहद हो गया,,
बाग़ के अच्छे दिनों की याद में वो खो गया ।

लाने को वापस हरियाली बाग़ की, वो क्या करे,,
कैसे रौनक़ फिर से आए देओ के इस बाग़ में ?

था ख़यालों में वो गुम, तरकीब उसको सूझी ये,,
’क्यूं न अपने बाग़ में बच्चों को वो फिर आने दे !’

सोच के ये उसने, खोला बाग़ के दरवाज़े को,,
और बच्चों को सदा दी, "अंदर आ कर खेल लो !"

पहले तो बच्चे डरे सुन के सदा ये देओ की,,
डरते-डरते एक बच्चे ने ही ख़ुद से पहल की ।

चल पड़े बच्चे सब उसके पीछे-पीछे बाग़ में,,
मुस्कुराता देओ उनको देखता था सामने ।

बाग़ में जैसे ही बच्चों के पड़े नन्हें क़दम,,
हो गया जैसे करिश्मा बाग़ में बस एकदम ।

पेड़ जो सूखे थे वो सब हो गए बिल्कुल हरे,,
खिल उठे सब फूल, पंछी गीत भी गाने लगे ।

बाग़ में आईं बहारें, हर तरफ़ रौनक़ हुई,,
देओ ने देखा जो ये, उसको ख़ुशी बेहद हुई ।

कर लिया ख़ुद से तहैय्या, "अब न रोकूंगा इन्हें,,
इनके दम से ही है रौनक़, इनको दूंगा खेलने ।"

तब से लेकर आज तक बच्चे वहां हैं खेलते,,
देओ अब होता है बेहद ख़ुश सभी को देख के ।
( Poet : मुईन शमसी ) 

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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

FRIENDSHIP DAY SPECIAL | Dosti Ghazal | Friendship poem

FRIENDSHIP DAY SPECIAL | Dosti Ghazal


TAARIKIYON ME SHAMMA JALAATI HAI DOSTI

BHATKE HU'ON KO RAAH DIKHAATI HAI DOSTI


TOOTE HUEY JO DIL HAIN, UNHEN JODTI HAI YE

ROOTTHEY HUEY HABEEB MANAATI HAI DOSTI


HANSTA HU GAR TO SANG LAGAATI HAI QEHQAHEY

GAR RO PADU TO ASHK BAHAATI HAI DOSTI


BANTI HAI MUSHKILON KA SABAB BHI KABHI-KABHI

MUSHKIL KE WAQT KAAM BHI AATI HAI DOSTI


TASKEEn KISI KE QALB KO KARTI HAI YE ATAA

BANKE KASAK KISI KO SATAATI HAI DOSTI


MUDDAT HUI HAI USKO GAYE, LEKIN AAJ BHI

TANHAAIYON ME KHOOB RULAATI HAI DOSTI


JAB DOST BANKE PEETTH ME GHONPE CHHURA KOI

'SHAMSI' YAQEEn KE KHOOn ME NAHAATI HAI DOSTI


Poet : Moin Shamsi

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तारीकियों में शम्मा जलाती है दोस्ती

भटके हुओं को राह दिखाती है दोस्ती ।


टूटे हुए जो दिल हैं उन्हें जोड़ती है ये

रूठे हुए हबीब मनाती है दोस्ती ।


हंसता हूं गर तो संग लगाती है क़हक़हे

गर रो पड़ूं तो अश्क बहाती है दोस्ती ।


बनती है मुश्किलों का सबब भी कभी-कभी

मुश्किल के वक़्त काम भी आती है दोस्ती ।


तस्कीं किसी के क़ल्ब को करती है ये अता

बनके कसक किसी को सताती है दोस्ती ।


मुद्दत हुई है उसको गए लेकिन आज भी

तन्हाइयों में ख़ूब रुलाती है दोस्ती ।


जब दोस्त बन के पीठ में घोंपे छुरा कोई

’शमसी’ यक़ीं के ख़ूं में नहाती है दोस्ती ।

---मुईन शमसी


word-Meanings:


तारीकियों = अंधेरों

हबीब = दोस्त

गर = अगर

क़हक़हे = ठहाके

अश्क = आंसू

सबब = कारण

तस्कीं = तस्कीन, तसल्ली

क़ल्ब = दिल

अता = प्रदान

मुद्दत = लम्बा समय

यक़ीं = यक़ीन, विश्वास

खूं = ख़ून 


To listen this ghazal, click here : 

https://youtu.be/rDR4deszqG0 



रविवार, 20 मार्च 2011

Holi Ghazal | होली ग़ज़ल | Ghazal in Urdu

Holi Ghazal | होली ग़ज़ल | Ghazal in Urdu

प्रेम के रंग में सब रंग जाएं, दिन है ठेल-ठिठोली का
मिटें नफ़रतें बढ़े मुहब्बत, तभी मज़ा है होली का ।

एक न इक दिन भर जाते हैं, घाव बदन पर जो लगते
ज़ख़्म नहीं भरता है लेकिन, कभी भी कड़वी बोली का ।

ज़ात-धरम-सिन-जिंस न देखे, बदन में जा कर धंस जाए
कोई अपना सगा नहीं होता, बंदूक़ की गोली का ।

कभी महल में रहता था वो, क़िस्मत ने करवट बदली
नहीं किराया दे पाता है, अब छोटी-सी खोली का ।

दूर से तुम अहवाल पूछ कर, रस्म अदा क्यों करते हो
पास में बैठो फिर समझोगे, दर्द किसी हमजोली का ।

गोद में जिसकी खेलीं दो-दो पुश्तें, देखो तो लोगो
चीर-हरण कर डाला उसने, इक मासूम-सी भोली का ।

’शमसी’, कोई लाख जतन कर ले, पर दाढ़ी-टोपी से
प्यार मुसलसल बना रहेगा, चावल-चंदन-रोली का ।
 ( Poet : मुईन शमसी ) ( All rights reserved )
शब्दार्थ:
सिन : उम्र
जिंस : लिंग (gender)
खोली : छोटा-सा कमरा
अहवाल : हालचाल
पुश्तें : पीढ़ियां
मुसलसल : लगातार 
To listen this ghazal, click here : 


Holi Poem | Holi Ki Kavita | In Hindi | Hinglish

Holi Poem - होली की कविता - In Hindi and Hinglish

रंग-बिरंगी प्यारी-प्यारी,
होली की भर लो पिचकारी ।

इक-दूजे को रंग दो ऐसे,
मिटें दूरियां दिल की सारी ।

तन भी रंग लो मन भी रंग लो,
परंपरा यह कितनी न्यारी ।

रंगों का त्योहार अनोखा,
आज है पुलकित हर नर-नारी ।

प्रेम-पर्व है आज बुझा दो,
नफ़रत की हर-इक चिंगारी ।

जाति-धर्म का भेद भुला दो,
मानवता के बनो पुजारी ।

मेलजोल में शक्ति बहुत है
वैर-भाव तो है बीमारी ।
Poet : मुईन शमसी (All Rights Are Reserved) 
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Is kavita ko sunna chaahen, to yahaan click karen : 
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Rang-birangi pyaari-pyaari,
holi ki bhar lo pichkaari.

ik dooje ko rang do aise,
miten dooriyaan dil ki saari.

tan bhi rang lo man bhi rang lo,
parampara yeh kitni nyaari.

rangon ka tyohaar anokha,
aaj hai pulkit har nar-naari.

prem-parv hai aaj bujha do,
nafrat ki har ik chingaari.

jaati-dharm ka bhed bhula do,
maanavta ke bano pujaari.

meljol me shakti bahut hai,
vair-bhaav to hai beemaari.
---Moin Shamsi (All rights are reserved)


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

Talli Ghazal - टल्ली ग़ज़ल | Mast Ghazal

Talli Ghazal - टल्ली ग़ज़ल - Mast Ghazal

अपना हर इक यार तो खाया-खेला लगता है,
माल मेरा कटता, उनका ना धेला लगता है ।

जितने पियक्कड़ फ़्रैंड्स हैं डेली आन धमकते हैं,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है ।

बेटी तो अंगूर की घर के अंदर मिलती है,
अंडों और नमकीन का बाहर ठेला लगता है ।

खोल के बोतल सीधे दारू ग़ट-ग़ट पीते हैं,
पैग, गिलास और पानी एक झमेला लगता है ।

दबा के पीकर हो के टल्ली डोला करते हैं,
उनमें से हर एक बड़ा अलबेला लगता है ।

मना करे जो पी के ऊधम उन्हें मचाने से,
झूमते उन सांडों को बहुत सड़ेला लगता है ।

खोल के घर में मयख़ाना ख़ुद पीता है लस्सी,
भीड़ है फिर भी ’शमसी’ बहुत अकेला लगता है ।
---मुईन शमसी (All rights reserved) 

To listen this ghazal, click here : 


सोमवार, 24 जनवरी 2011

Hindi Ghazal | Deshbhakti Poetry | देशभक्ति-ग़ज़ल | Patriotic Ghazal - (All rights reserved)

Hindi Ghazal - देशभक्ति-ग़ज़ल

देश के कण-कण से और जन-जन से मुझको प्यार है 

देश-सेवा के लिये तन-मन सदा तैयार है ।


ईद दीवाली बड़ा-दिन होली और गुरु का परब 

याँ बड़े सौहार्द से मनता हर-इक त्योहार है ।


अपने भारत में नहीं है कोई प्रतिभा की कमी 

तथ्य ये स्वीकारता सम्पूर्ण ही संसार है ।


हिंद में लेकर जनम जो हिंद की खोदे जड़ें 

ऐसे लम्पट-धूर्त पे सौ-सौ दफ़ा धिक्कार है ।


करके भ्रष्टाचार जो जेबों को अपनी भर रहा

 देश का दुश्मन है वो सबसे बड़ा ग़द्दार है ।


इक तरफ़ उपलब्ध रोटी है नहीं दो-जून की

 इक तरफ़ बर्बाद होता अन्न का भण्डार है ।


आज ’शमसी’ है किसे चिंता यहां कर्तव्य की 

जिसको देखो, मुंह उठाए मांगता अधिकार है ।

(All rights are reserved with the poet Moin Shamsi)

इस देशभक्ति-ग़ज़ल को सुनने के लिये लिंक : 

https://youtu.be/Bz4Ju8rJcYE 



बुधवार, 5 जनवरी 2011

ग़ज़ल - मादर-ए-वतन | Urdu Shayari | Ghazal

ग़ज़ल - मादर-ए-वतन - Urdu Shayari

हिन्दू है जिसका जिस्म, मुसलमान जान है
वो मादर-ए-वतन मेरी, जग में महान है ।

परचम में तीन रंग हैं तीनों बड़े अहम
लहरा रहा है देखिये क्या इसकी शान है !

घुलती है शाम-ओ-सुब्ह कोई मिसरी सी कान में
बजती हैं घंटियां कहीं होती अज़ान है ।

रक्षा को अपने हिन्द की सीमा पे सब खड़े
कोई है शेर सिंह कोई शेर ख़ान है ।

माटी से अपने देश की सोना निकालता
भारत की जग में शान बढ़ाता किसान है ।

अपने वतन से प्यार करो उसके हो रहो
कहते यही हैं वेद यह कहता क़ुरान है ।

जाना है जिसको जाए वो अमरीका-ओ-दुबई
’शमसी’ को तो अज़ीज़ यह हिंदोस्तान है ।
Poet : Moin Shamsi (All rights reserved)

( You can listen to this ghazal through this link :