सोमवार, 16 मई 2011

Fox and Crow story in Hindi - कव्वा और लोमड़ी | Story Poem

Fox and Crow story in Hindi - कव्वा और लोमड़ी - Story Poem


To listen this story, visit here : 

https://youtu.be/y3wXWmWrR8Q 

To know the meanings and pronunciation of the difficult Urdu words used in this poem, visit here : 

https://youtu.be/PgpAySj94yc 


एक दिन की बात है इक कव्वा था भूका बड़ा,,

सुबहा से इक भी न दाना पेट में उसके पड़ा ।


ढूंढने खाने की अशया घूमता था दर-ब-दर,,

तब यकायक एक शय पर उसकी जा पहुंची नज़र ।


पास जाकर देखने से भूक उसकी बढ़ गई,,

एक रोटी थी रखी जो घी में थी चुपड़ी हुई ।


एक लम्हा देर की ना रोटी पकड़ी चोंच में,,

’बैठकर किस जगहा खाऊं’ वो लगा ये सोचने ।


शाख़ पे इक पेड़ की ऊंचे, पड़ी उसकी नज़र,,

थी मुनासिब जगहा फ़ौरन उड़ के पहुंचा डाल पर ।


देर कुछ भी ना हुई थी उसको बैठे पेड़ पे,,

चलते-चलते लोमड़ी इक ठहरी उसको देख के ।


घी लगी रोटी को देखा मुंह में पानी आ गया,,

रूखा-सूखा खा के उसका जी भी था उकता गया ।


राल टपकाते हुए वो सोचने तब ये लगी,,

’काश मिल जाए मुझे ये रोटी जो है घी भरी’ ।


’है मगर दुशवार रोटी करना हासिल कव्वे से,,

बेवक़ूफ़ इसको बनाऊं अक़्ल के इक जलवे से’ ।


सोच के तरकीब इक वो कव्वे की जानिब गई,,

और फिर शीरीं ज़बां से उससे ये कहने लगी :


"कव्वे भाई कव्वे भाई, तुमको कुछ मालूम है?,,

शक्ल है भोली तुम्हारी और बड़ी मासूम है ।"


बात उसकी सुनके कव्वा खाते-खाते रुक गया,,

चोंच में रोटी दबाए देखने उसको लगा ।


जब न खोला उसने मुंह तो लोमड़ी कहने लगी,,

"कव्वे भाई, बात मेरी ग़ालिबन समझे नहीं ।"


फिर भी कव्वा चुप रहा बोला नहीं इक लफ़्ज़ भी,,

देख के उसकी ख़मोशी लोमड़ी कहने लगी :


"कव्वे भाई, ये तुम्हारे पर भी कितने ख़ूब हैं,,,

जो भी देखे उसको भाएं तुम से ये मन्सूब हैं ।


प्यारे-प्यारे काले-काले हैं ये चमकीले बड़े,,

देखने वाले कई हैं इश्क़ में इनके पड़े ।


यूं तो जंगल में परिंदे उड़ते फिरते हैं कई,,

ख़ूबसूरत इतने लेकिन पर किसी के हैं नहीं ।"


इतना कह के चुप हुई कुछ देर को वो लोमड़ी,,

दिल ही दिल में इस तरह कुछ अपने थी वो सोचती ।


’बस ज़रा सा खोल दे मुंह और कव्वा कुछ कहे,,

मुंह में रख कर भाग जाऊं जैसे ही रोटी गिरे ।’


लोमड़ी के दिल की हसरत पूरी ना उस दम हुई,,

ख़ुश तो कव्वा हो गया लेकिन रहा ख़ामोश ही ।


लोमड़ी हिम्मत न हारी एक कोशिश और की,,

मुस्कुरा के इक अदा से कव्वे से कहने लगी :


"कव्वे भाई, बात का मेरी ज़रा कर लो यक़ीं,,

एक ख़ूबी और तुम में है जो औरों में नहीं ।


सच मैं कहती हूं ज़रूरत झूट की क्या है भला,,

सब से ज़्यादा है सुरीला बस तुम्हारा ही गला ।


तुम तरन्नुम में हो गाते, क्या तुम्हारी शान है !,,

वाक़ई तुम को सुरों की पूरी ही पहचान है ।


’कांव’ की मीठी सदा जब छेड़ देते हो कभी,,

छोड़ के सब काम अपने, सुनने लगते हैं सभी ।"


इस क़दर तारीफ़ सुन के कव्वा चुप ना रह सका,,

खोल के मुंह "शुक्रिया प्यारी बहन" कहने लगा ।


ज्यों ही मुंह कव्वे ने खोला, रोटी नीचे आ गई,,

लोमड़ी तो ताक में थी, झट उठा के खा गई ।


घी लगी रोटी को खा के इक डकार उसने लिया,,

इक लगाया क़हक़हा और कव्वे से कुछ यूं कहा :


"तुम से बढ़ कर बेवक़ूफ़ इस दुनिया में कोई नहीं,,

मैं चली, अब ’कांओं-कांओं’ करते बैठो तुम यहीं ।"


इतना कह के लोमड़ी तो घर को अपने चल पड़ी,,

बेवक़ूफ़ी पड़ गई कव्वे को वो महंगी बड़ी ।

---मुईन शमसी (All Rights Are Reserved)



शनिवार, 7 मई 2011

’मदर्स-डे’ स्पेशल (Maa ka pyaar) | Mothers Day Poem | Maa ki Shayari

 ’मदर्स-डे’ स्पेशल (Maa ka pyaar) | Mothers Day Poem | Maa ki Shayari

सबसे पावन, सबसे निर्मल, सबसे सच्चा मां का प्यार 
सबसे अनोखा, सबसे न्यारा, सबसे प्यारा मां का प्यार । 

 बच्चे को ख़ुश देख-देख के, मन ही मन हंसता रहता
 जब संतान पे विपदा आए, तड़प ही उठता मां का प्यार ।

 सुख की ठंडी छांव में शीतल पवन के जैसा लहराता 
दुख की जलती धूप में सर पे साया बनता मां का प्यार ।

 मिल जाएगा यूं तो जग में, कोई विकल्प हर रिश्ते का 
बेमिसाल है, लाजवाब है, बड़ा अनूठा मां का प्यार । 

 करता शीश झुका कर विनती ’शमसी’ यही विधाता से 
’जैसे मुझको दिया है, या रब ! सब को देना मां का प्यार ।’ 

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(प्रस्तुत रचना के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं । इसका अव्यावसायिक उपयोग मेरे नाम के साथ कहीं भी किया जा सकता है । व्यावसायिक उपयोग के लिये मेरी लिखित अनुमति लेना आवश्यक है...मुईन शम्सी)

सोमवार, 2 मई 2011

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश 

था किसी दरिया किनारे, इक घना जंगल कभी,, 
जानवर बेहद वहां थे चैन से रहते सभी । 

 उस घने जंगल के अंदर रहता इक ख़रगोश था,,
 बर्क़-रफ़्तारी के मद में अपनी वो मदहोश था ।

 सोचता ख़रगोश "कितना तेज़ हूं मैं दौड़ता,, 
जब मैं दौड़ूं, सबको पीछे जाता हूं मैं छोड़ता ।

 मुझसे ज़्यादा तेज़ कोई दौड़ सकता ही नहीं,, 
संग मेरे दौड़ ले वो, जिसको ना आए यक़ीं ।"

 एक दिन मग़रूर होके सबसे वो कहता फिरा,, 
"मेरे जैसा तेज़ दौड़े, है कोई ना दूसरा ।" 

 सर हिलाया सब ने उसकी बात सुन, अस्बात में,,
 दम न कछुए को लगा लेकिन कोई इस बात में ।

 बोला वो ख़रगोश से "बिल्कुल ग़लत कहते हो तुम,, 
जानते कुछ हो नहीं, बस ख़ुद में ही रहते हो गुम । 

 जानवर हैं और भी, जो तुमसे ज़्यादा तेज़ हैं,, 
बर्क़-रफ़्तारी की ताक़त से बड़े लबरेज़ हैं ।"

 इक सुनी ना लेकिन उस ख़रगोश ने कछुए की बात,,
 हो गई उनमें बहस, उट्ठे भड़क उनके जज़बात ।

 बढ़ गई जब बात ज़्यादा, कछुआ बोला जोश में,,
 "ना ग़ुरूर इतना करो, आओ मियां तुम होश में । 

 ना मचाओ शोर नाहक़, एक दिन ऐसा करो,, 
तुम को तो मैं ही हरा दूं, संग मेरे दौड़ लो ।" 

 बात कछुए की सुनी तो ज़ोर से हंसने लगा,,
 हंसते-हंसते कछुए से ख़रगोश ये कहने लगा :

 "मुझसे ना जीतेगा नादां, क्या तेरी औक़ात है !,, 
दिन कोई कर ले मुक़र्रर, बाज़ी मेरे हाथ है ।" 

 बोला कछुआ दिल में, ’उस दिन ही पता चल जाएगा,,
 दौड़ूंगा जब संग तेरे, जीत तू ना पाएगा ।’ 

 अल-ग़रज़ जुम्मे के दिन को दौड़ होना तय हुई,, 
’जीतेगा ख़रगोश ही’ ये सोचता था हर कोई । 

 आया दिन जब दौड़ का तो हो गए सब ही जमा,,
 इक अनोखी दौड़ का लेना सभी को था मज़ा । 

 फ़ैसला करने की ख़ातिर हाथी बुलवाया गया,, 
दौड़ेंगे दोनों कहां तक, ये भी तय पाया गया ।

 इब्तिदा फिर दौड़ की वक़्त-ए-मुक़र्रर पर हुई,, 
इल्म ना ख़रगोश को था, उसकी क़िस्मत है सोई ।

 यूं तो इक लम्हे में ही ख़रगोश आगे हो गया,,
 हौले-हौले धीरे-धीरे कछुआ भी चलता रहा । 

 पहुंचा थोड़ी दूर तो ख़रगोश को आया ख़याल,,
 ’जीत जाए मुझ से ये कछुआ, नहीं इसकी मजाल !

 काफ़ी आगी आ गया हूं, क्यूं न मैं ऐसा करूं,, 
जब तलक पहुंचे यहां वो, तब तलक इक नींद लूं !’

 सोच कर ये बात, वो ख़रगोश साहब सो गए,, 
नींद में भी जीत के ख़्वाबों में ही वो खो गए । 

 कछुआ लेकिन था सुबुक-रफ़्तार, सो चलता गया,, 
राह में ख़रगोश को सोते हुए देखा किया । 

 रफ़्ता-रफ़्ता ख़ामुशी से कछुआ आगे बढ़ गया,, 
बेख़बर इस बात से ख़रगोश, सोता ही रहा ।

 नींद जब टूटी तो सोचा ’अब भी काफ़ी वक़्त है,, 
वास्ते कछुए के शायद दौड़ ये तो सख़्त है ।

 ख़ैर ! मुझ को क्या है मतलब ! मैं तो चल ही देता हूं,, 
जा के मंज़िल पे, फ़तह का तमग़ा ले ही लेता हूं ।’ 

 पहुंचा लेकिन जब वो मंज़िल पे, तो मायूसी हुई,, 
कछुए ने पहले पहुंच कर, दौड़ थी वो जीत ली । 

 कर ही क्या कर सकता था अब वो, बस यही सोचा किया,, 
’काश मैं सोता नहीं, तो दौड़ मैं ही जीतता ।’ 

 काम जो मुमकिन नहीं था, कछुए ने वो कर दिया,, 
मात दी ख़रगोश को, दिल उसका ग़म से भर दिया । 

 सच कहा है ये किसी ने, ’ना कभी करना ग़ुरूर,, 
और गर हो काम मुश्किल, कोशिशें करना ज़रूर ।

 एक दिन तुम भी यक़ीनन अपनी मंज़िल पाओगे,, 
हां हुए मग़रूर गर तुम, तो बहुत पछताओगे ।’ 
(कवि : मुईन शमसी) 
(इस रचना के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं । पूर्ण या आंशिक प्रयोग लेखक की अनुमति से ही किया जा सकता है )

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गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़
दास्ताँ इक बाग़ की तुमको सुनाता हूँ मैं आज,,
था जहां चारों तरफ़ सब्ज़ा-ओ-हरियाली का राज ।

थे परिंदे चहचहाते डाल पे हर पेड़ की,,
बहती थी ठंडी हवा पेड़ों की शाख़ें छेड़ती ।

हर तरफ़ उड़ती फिरा करती थीं रंगीं तितलियां,,
भौंरे फूलों के रुख़ों पे करते थे अठखेलियां ।

खेलने को बाग़ में बच्चे भी आया करते थे,,
आ तो जाते, बाग़ के मालिक से लेकिन डरते थे ।

ख़ूब ही ऊधम किया करते रोज़ाना बाग़ में,,
थी भरी बेहद शरारत बच्चों के दिमाग़ में ।

मार के पत्थर दरख़्तों से वो फल थे तोड़ते,,
कूदते और फांदते थे, भागते और दौड़ते ।

बाग़ का मालिक था कौन, अब तुम को ये बतलाता  हूँ,,
लम्बे-चौड़े देओ से बच्चो तुम्हें मिलवाता हूँ 

ये है मालिक बाग़ का, ये बच्चो को धमकाता है,,
शक्ल इसकी देख के हर बच्चा भाग जाता है ।

दिन में भी ये देओ बच्चो सोता ही बस रहता था,,
शोर सुनके जाग जाता, दहाड़ कर ये कहता था :

"भाग जाओ भाग जाओ, इधर कभी ना फिर आना,,
तुम्हें पकड़कर बंद करूंगा, पानी मिलेगा ना दाना ।"

बच्चे डर कर भाग जाते, लेकिन फिर आ जाते थे,,
दिन में अगर इक बार न खेलें, चैन नहीं वो पाते थे ।

पाने को छुटकारा बच्चों से ये सोचा देओ ने,,
’कोई तरकीब ऐसी हो, बच्चे ना आएं खेलने ।’

देर तक सोचा किया वो, तब ये सूझा देओ को,,
’बाग़ के चारों तरफ़ इक ऊंची-सी दीवार हो ।

रास्ता ही दाख़िले का जब मिलेगा ना कोई,,
वो सभी शैतान बच्चे आ ना पाएंगे कभी ।’

ये ख़याल आते ही उसने मेमारों से बात की,,
कुछ दिनों में इक ऊंची दीवार वहां पे बन गई ।

दाख़िला बच्चों का सचमुच बाग़ में बंद हो गया,,
बे-फ़िकर होके वो देओ नींद गहरी सो गया ।

दिन गुज़रने देओ के कुछ इस तरह से अब लगे,,
जब भी दिल चाहे सो जाए, और जब चाहे जगे ।

वक़्त गुज़रा, बदला मौसम, आ गई हर सू बहार,,
हर कली पे, फूल और पेड़ों पे भी आया निखार ।

सब तरफ़ रौनक़ थी लेकिन बाग़ मुरझाया रहा,,
पेड़ भी सूखे रहे और फूल भी इक ना खिला ।

देखा जब ये देओ ने, मायूस बेहद हो गया,,
बाग़ के अच्छे दिनों की याद में वो खो गया ।

लाने को वापस हरियाली बाग़ की, वो क्या करे,,
कैसे रौनक़ फिर से आए देओ के इस बाग़ में ?

था ख़यालों में वो गुम, तरकीब उसको सूझी ये,,
’क्यूं न अपने बाग़ में बच्चों को वो फिर आने दे !’

सोच के ये उसने, खोला बाग़ के दरवाज़े को,,
और बच्चों को सदा दी, "अंदर आ कर खेल लो !"

पहले तो बच्चे डरे सुन के सदा ये देओ की,,
डरते-डरते एक बच्चे ने ही ख़ुद से पहल की ।

चल पड़े बच्चे सब उसके पीछे-पीछे बाग़ में,,
मुस्कुराता देओ उनको देखता था सामने ।

बाग़ में जैसे ही बच्चों के पड़े नन्हें क़दम,,
हो गया जैसे करिश्मा बाग़ में बस एकदम ।

पेड़ जो सूखे थे वो सब हो गए बिल्कुल हरे,,
खिल उठे सब फूल, पंछी गीत भी गाने लगे ।

बाग़ में आईं बहारें, हर तरफ़ रौनक़ हुई,,
देओ ने देखा जो ये, उसको ख़ुशी बेहद हुई ।

कर लिया ख़ुद से तहैय्या, "अब न रोकूंगा इन्हें,,
इनके दम से ही है रौनक़, इनको दूंगा खेलने ।"

तब से लेकर आज तक बच्चे वहां हैं खेलते,,
देओ अब होता है बेहद ख़ुश सभी को देख के ।
( Poet : मुईन शमसी ) 

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गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

FRIENDSHIP DAY SPECIAL | Dosti Ghazal | Friendship poem

FRIENDSHIP DAY SPECIAL | Dosti Ghazal


TAARIKIYON ME SHAMMA JALAATI HAI DOSTI

BHATKE HU'ON KO RAAH DIKHAATI HAI DOSTI


TOOTE HUEY JO DIL HAIN, UNHEN JODTI HAI YE

ROOTTHEY HUEY HABEEB MANAATI HAI DOSTI


HANSTA HU GAR TO SANG LAGAATI HAI QEHQAHEY

GAR RO PADU TO ASHK BAHAATI HAI DOSTI


BANTI HAI MUSHKILON KA SABAB BHI KABHI-KABHI

MUSHKIL KE WAQT KAAM BHI AATI HAI DOSTI


TASKEEn KISI KE QALB KO KARTI HAI YE ATAA

BANKE KASAK KISI KO SATAATI HAI DOSTI


MUDDAT HUI HAI USKO GAYE, LEKIN AAJ BHI

TANHAAIYON ME KHOOB RULAATI HAI DOSTI


JAB DOST BANKE PEETTH ME GHONPE CHHURA KOI

'SHAMSI' YAQEEn KE KHOOn ME NAHAATI HAI DOSTI


Poet : Moin Shamsi

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तारीकियों में शम्मा जलाती है दोस्ती

भटके हुओं को राह दिखाती है दोस्ती ।


टूटे हुए जो दिल हैं उन्हें जोड़ती है ये

रूठे हुए हबीब मनाती है दोस्ती ।


हंसता हूं गर तो संग लगाती है क़हक़हे

गर रो पड़ूं तो अश्क बहाती है दोस्ती ।


बनती है मुश्किलों का सबब भी कभी-कभी

मुश्किल के वक़्त काम भी आती है दोस्ती ।


तस्कीं किसी के क़ल्ब को करती है ये अता

बनके कसक किसी को सताती है दोस्ती ।


मुद्दत हुई है उसको गए लेकिन आज भी

तन्हाइयों में ख़ूब रुलाती है दोस्ती ।


जब दोस्त बन के पीठ में घोंपे छुरा कोई

’शमसी’ यक़ीं के ख़ूं में नहाती है दोस्ती ।

---मुईन शमसी


word-Meanings:


तारीकियों = अंधेरों

हबीब = दोस्त

गर = अगर

क़हक़हे = ठहाके

अश्क = आंसू

सबब = कारण

तस्कीं = तस्कीन, तसल्ली

क़ल्ब = दिल

अता = प्रदान

मुद्दत = लम्बा समय

यक़ीं = यक़ीन, विश्वास

खूं = ख़ून 


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https://youtu.be/rDR4deszqG0 



रविवार, 20 मार्च 2011

Holi Ghazal | होली ग़ज़ल | Ghazal in Urdu

Holi Ghazal | होली ग़ज़ल | Ghazal in Urdu

प्रेम के रंग में सब रंग जाएं, दिन है ठेल-ठिठोली का
मिटें नफ़रतें बढ़े मुहब्बत, तभी मज़ा है होली का ।

एक न इक दिन भर जाते हैं, घाव बदन पर जो लगते
ज़ख़्म नहीं भरता है लेकिन, कभी भी कड़वी बोली का ।

ज़ात-धरम-सिन-जिंस न देखे, बदन में जा कर धंस जाए
कोई अपना सगा नहीं होता, बंदूक़ की गोली का ।

कभी महल में रहता था वो, क़िस्मत ने करवट बदली
नहीं किराया दे पाता है, अब छोटी-सी खोली का ।

दूर से तुम अहवाल पूछ कर, रस्म अदा क्यों करते हो
पास में बैठो फिर समझोगे, दर्द किसी हमजोली का ।

गोद में जिसकी खेलीं दो-दो पुश्तें, देखो तो लोगो
चीर-हरण कर डाला उसने, इक मासूम-सी भोली का ।

’शमसी’, कोई लाख जतन कर ले, पर दाढ़ी-टोपी से
प्यार मुसलसल बना रहेगा, चावल-चंदन-रोली का ।
 ( Poet : मुईन शमसी ) ( All rights reserved )
शब्दार्थ:
सिन : उम्र
जिंस : लिंग (gender)
खोली : छोटा-सा कमरा
अहवाल : हालचाल
पुश्तें : पीढ़ियां
मुसलसल : लगातार 
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Holi Poem | Holi Ki Kavita | In Hindi | Hinglish

Holi Poem - होली की कविता - In Hindi and Hinglish

रंग-बिरंगी प्यारी-प्यारी,
होली की भर लो पिचकारी ।

इक-दूजे को रंग दो ऐसे,
मिटें दूरियां दिल की सारी ।

तन भी रंग लो मन भी रंग लो,
परंपरा यह कितनी न्यारी ।

रंगों का त्योहार अनोखा,
आज है पुलकित हर नर-नारी ।

प्रेम-पर्व है आज बुझा दो,
नफ़रत की हर-इक चिंगारी ।

जाति-धर्म का भेद भुला दो,
मानवता के बनो पुजारी ।

मेलजोल में शक्ति बहुत है
वैर-भाव तो है बीमारी ।
Poet : मुईन शमसी (All Rights Are Reserved) 
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Is kavita ko sunna chaahen, to yahaan click karen : 
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Rang-birangi pyaari-pyaari,
holi ki bhar lo pichkaari.

ik dooje ko rang do aise,
miten dooriyaan dil ki saari.

tan bhi rang lo man bhi rang lo,
parampara yeh kitni nyaari.

rangon ka tyohaar anokha,
aaj hai pulkit har nar-naari.

prem-parv hai aaj bujha do,
nafrat ki har ik chingaari.

jaati-dharm ka bhed bhula do,
maanavta ke bano pujaari.

meljol me shakti bahut hai,
vair-bhaav to hai beemaari.
---Moin Shamsi (All rights are reserved)


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

Talli Ghazal - टल्ली ग़ज़ल | Mast Ghazal

Talli Ghazal - टल्ली ग़ज़ल - Mast Ghazal

अपना हर इक यार तो खाया-खेला लगता है,
माल मेरा कटता, उनका ना धेला लगता है ।

जितने पियक्कड़ फ़्रैंड्स हैं डेली आन धमकते हैं,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है ।

बेटी तो अंगूर की घर के अंदर मिलती है,
अंडों और नमकीन का बाहर ठेला लगता है ।

खोल के बोतल सीधे दारू ग़ट-ग़ट पीते हैं,
पैग, गिलास और पानी एक झमेला लगता है ।

दबा के पीकर हो के टल्ली डोला करते हैं,
उनमें से हर एक बड़ा अलबेला लगता है ।

मना करे जो पी के ऊधम उन्हें मचाने से,
झूमते उन सांडों को बहुत सड़ेला लगता है ।

खोल के घर में मयख़ाना ख़ुद पीता है लस्सी,
भीड़ है फिर भी ’शमसी’ बहुत अकेला लगता है ।
---मुईन शमसी (All rights reserved) 

To listen this ghazal, click here : 


सोमवार, 24 जनवरी 2011

Hindi Ghazal | Deshbhakti Poetry | देशभक्ति-ग़ज़ल | Patriotic Ghazal - (All rights reserved)

Hindi Ghazal - देशभक्ति-ग़ज़ल

देश के कण-कण से और जन-जन से मुझको प्यार है 

देश-सेवा के लिये तन-मन सदा तैयार है ।


ईद दीवाली बड़ा-दिन होली और गुरु का परब 

याँ बड़े सौहार्द से मनता हर-इक त्योहार है ।


अपने भारत में नहीं है कोई प्रतिभा की कमी 

तथ्य ये स्वीकारता सम्पूर्ण ही संसार है ।


हिंद में लेकर जनम जो हिंद की खोदे जड़ें 

ऐसे लम्पट-धूर्त पे सौ-सौ दफ़ा धिक्कार है ।


करके भ्रष्टाचार जो जेबों को अपनी भर रहा

 देश का दुश्मन है वो सबसे बड़ा ग़द्दार है ।


इक तरफ़ उपलब्ध रोटी है नहीं दो-जून की

 इक तरफ़ बर्बाद होता अन्न का भण्डार है ।


आज ’शमसी’ है किसे चिंता यहां कर्तव्य की 

जिसको देखो, मुंह उठाए मांगता अधिकार है ।

(All rights are reserved with the poet Moin Shamsi)

इस देशभक्ति-ग़ज़ल को सुनने के लिये लिंक : 

https://youtu.be/Bz4Ju8rJcYE 



बुधवार, 5 जनवरी 2011

ग़ज़ल - मादर-ए-वतन | Urdu Shayari | Ghazal

ग़ज़ल - मादर-ए-वतन - Urdu Shayari

हिन्दू है जिसका जिस्म, मुसलमान जान है
वो मादर-ए-वतन मेरी, जग में महान है ।

परचम में तीन रंग हैं तीनों बड़े अहम
लहरा रहा है देखिये क्या इसकी शान है !

घुलती है शाम-ओ-सुब्ह कोई मिसरी सी कान में
बजती हैं घंटियां कहीं होती अज़ान है ।

रक्षा को अपने हिन्द की सीमा पे सब खड़े
कोई है शेर सिंह कोई शेर ख़ान है ।

माटी से अपने देश की सोना निकालता
भारत की जग में शान बढ़ाता किसान है ।

अपने वतन से प्यार करो उसके हो रहो
कहते यही हैं वेद यह कहता क़ुरान है ।

जाना है जिसको जाए वो अमरीका-ओ-दुबई
’शमसी’ को तो अज़ीज़ यह हिंदोस्तान है ।
Poet : Moin Shamsi (All rights reserved)

( You can listen to this ghazal through this link : 


सोमवार, 20 दिसंबर 2010

Ghazal - MUHABBAT | Urdu Shayari | मुहब्बत

Ghazal : MUHABBAT : Urdu Shayari : मुहब्बत 

तुम्हारी मुहब्बत हमारी मुहब्बत
जहाँ में सभी की है प्यारी मुहब्बत ।

मुसीबत के कितने पहाड़ इस पे टूटे
न ज़ुल्म-ओ-सितम से है हारी मुहब्बत ।

इसे रोकने को कई आए लेकिन
है आब-ए-रवाँ जैसी जारी मुहब्बत ।

इक आशिक़ ने इक रोज़ हम से कहा था
"ख़ुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत" ।

है जिस दिन से देखा वो नूरानी पैकर
नशे जैसी दिल पे है तारी मुहब्बत ।

पुरुष भूल जाता है अक्सर, परन्तू
नहीं भूल पाती है नारी मुहब्बत ।

उसे बे-ज़बानों का खूँ है बहाना
करेगा भला क्या शिकारी मुहब्बत ।

हैं सब तुझ पे शैदा, है क्या ख़ास तुझ में
ज़रा मुझ को ये तो बता री मुहब्बत !

कभी दिल में ’शमसी’ के आ के तो देखो
है इस में भरी ढेर सारी मुहब्बत । 
(Poet : Moin Shamsi ) (All Rights Reservrd) 

Is ghazal ko sunna chaahen, to yahaan click karen :


रविवार, 5 दिसंबर 2010

Romantic Urdu Ghazal in Hindi | Aaftaab e subah ho tum

उर्दू की एक Romantic Ghazal - in Hindi

आफ़ताब-ए-सुबह हो तुम, माहताब-ए-शाम हो,
हो जहां तुम वाँ अंधेरों का भला क्या काम हो।

है तुम्हारे दम से महफ़िल में चराग़ाँ हर तरफ़,
तुम न हो तो सूनी-सूनी सी यहां हर शाम हो ।

तुम रहो जिसके मुक़ाबिल, होश उसके गुम रहें,
क्यूं करे वो आरज़ू हाथों में उसके जाम हो !

हूँ मरीज़-ए-इश्क़ मैं और मर्ज़ मेरा ला-इलाज,
तुम अगर छू दो तो शायद मुझको कुछ आराम हो ।

हैं तुम्हारी दीद के लाखों दिवाने मुन्तज़िर,
इक अकेला नाम मेरा क्यूं भला बदनाम हो !

बज़्म-ए-दिल की पुर-अलम तारीकियों के वास्ते,
ऐ मेरे हमदर्द तुम तो नूर का पैग़ाम हो ।

कर दिया इज़हार लो ’शमसी’ ने अपने इश्क़ का,
कुछ नहीं मालूम इसको, इसका क्या अंजाम हो ।
(शाइर : मुईन शम्सी)   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

इस ग़ज़ल को मुझसे सुनने के लिए यह लिंक खोलें : 
इस ग़ज़ल में आए हुए कठिन शब्दों के अर्थ और उन्हें बोलने का सही तरीक़ा मुझसे जानने के लिए इस लिंक पर आएं : 


गुरुवार, 25 नवंबर 2010

Romantic Ghazal | makhmali ahsaas |

रोमैंटिक ग़ज़ल 

किसी का मख़मली अहसास मुझको गुदगुदाता है 
ख़यालों में दुपट्टा रेशमी इक सरसराता है 

 ठिठुरती सर्द रातों में मेरे कानों को छूकर जब
 हवा करती है सरगोशी बदन यह कांप जाता है 

 उसे देखा नहीं यों तो हक़ीक़त में कभी मैंने 
मगर ख़्वाबों में आकर वो मुझे अकसर सताता है

 नहीं उसकी कभी मैंने सुनी आवाज़ क्योंकि वो 
लबों से कुछ नहीं कहता इशारे से बुलाता है 

 हज़ारों शम्स हो उठते हैं रौशन उस लम्हे जब वो 
हसीं रुख़ पर गिरी ज़ुल्फ़ों को झटके से हटाता है 

 किसी गुज़रे ज़माने में धड़कना इसकी फ़ितरत थी 
पर अब तो इश्क़ के नग़मे मेरा दिल गुनगुनाता है 

 कहा तू मान ऐ ’शम्सी’ दवा कुछ होश की कर ले 
ख़याली दिलरुबा से इस क़दर क्यों दिल लगाता है !
(कवि : मुईन शम्सी)
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मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

DASHAHRA GHAZAL | दशहरा ग़ज़ल | Urdu Ghazal in Hindi

दशहरा ग़ज़ल 

इस बार दशहरे पे नया काम हम करें, 
रावण को अपने मन के चलो राम हम करें । 

 दूजे के घर में फेंक के पत्थर, लगा के आग, 
मज़हब को अपने-अपने न बदनाम हम करें । 

 उसका धरम अलग सही, इन्सान वो भी है, 
तकलीफ़ में है वो तो क्यूं आराम हम करें । 

 माज़ी की तल्ख़ याद को दिल से निकाल कर, 
मिलजुल के सब रहें, ये इन्तिज़ाम हम करें । 

 अपने किसी अमल से किसी का न दिल दुखे, 
जज़बात का सभी के अहतराम हम करें । 

 अब मुल्क में कहीं भी न दंगा-फ़साद हो, 
बस प्यार-मुहब्बत की रविश आम हम करें । 

 ’शम्सी’ मिटा के अपने दिलों से कदूरतें, 
शफ़्फ़ाफ़ ख़यालों का अहतमाम हम करें ।
(Poet : Moin Shamsi) 
(All Rights Are Reserved) 
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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

Shayari - kyu hai -Urdu ki hit Ghazal | Communal Harmony Poetry

सबके होते हुए वीरान मेरा घर क्यूं है,
इक ख़मोशी भरी गुफ़्तार यहां पर क्यूं है !

एक से एक है बढ़कर यहां फ़ातेह मौजूद,
तू समझता भला ख़ुद ही को सिकन्दर क्यूं है !

वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !

सब के होटों पे मुहब्बत के तराने हैं रवाँ,
पर नज़र आ रहा हर हाथ में ख़न्जर क्यूं है !

क्यूं हर इक चेहरे पे है कर्ब की ख़ामोश लकीर,
आंसुओं का यहां आंखों में समन्दर क्यूं है !

तू तो हिन्दू है मैं मुस्लिम हूं ज़रा ये तो बता,
रहता अक्सर तेरे कांधे पे मेरा सर क्यूं है !

काम इसका है अंधेरे में दिया दिखलाना,
राह भटका रहा ’शम्सी’ को ये रहबर क्यों है !
(Poet : Moin Shamsi) 
(All Rights Are Reserved) 
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