कहने को आज़ाद हैं हम, पर यह कैसी आज़ादी है
चरम पे भ्रष्टाचार है पहुंचा, हिंसा है, बर्बादी है
जनसाधारण की ख़ातिर जो बुनी कभी थी गांधी ने
महंगी होकर धनिकों के तन पर वो सजती खादी है
सींचा था जिस चमन को हिंदू-मुस्लिम ने अपने ख़ूं से
द्वेष के सौदागरों ने उसमें ज़हर की बेल उगा दी है
बात-बात पे लाइन है लगती, या धक्का-मुक्की होती
जहां भी देखो वहां भीड़ है, सवा अरब आबादी है
क्या कारण है, क्यों वो हमको सदा छेड़ता रहता है
पैंसठ और इकहत्तर में जिसको औक़ात बता दी है
लक्ष्मी, लता, रज़िया, इन्दिरा और सरोजिनी के भारत में
गर्भ में कन्या मारी जाती, यह हरकत जल्लादी है
नोन-तेल-लकड़ी की क़ीमत ’शमसी’ बढ़ती ही जाती
कमर-तोड़ महंगाई ने सच कहूं क़यामत ढा दी है ।
---मुईन शमसी
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