रविवार, 11 सितंबर 2011

दो किलो चावल (मुल्ला नसरुद्दीन की एक कहानी) (सर्वाधिकार सुरक्षित)


अच्छा बच्चो, आज मुझको तुम ये बतलाओ ज़रा 
नाम तुमने मुल्ला नसरुद्दीन का तो है सुना ? 


एक दिन मुल्ला ने सोचा, ’आज बिरयानी पके’ 
बोली बीवी, "जा के चावल लाओ तुम बाज़ार से" 


ले के थैला, लाने चावल, मुल्ला साहब चल दिये 
दो किलो चावल ख़रीदे, घर को वापस हो लिये 


रास्ते में याद आया, ’दोस्त इक बीमार है 
जा के उसका हाल पूछूं, कैसा मेरा यार है 


ले के थैला जाना लेकिन, ना-मुनासिब बात है 
लेकिन आख़िर क्या करूं इस थैले का, जो साथ है?’ 


सोच में डूबे थे मुल्ला, के अचानक आया याद 
’एक और पहचान वाला रहता है यां आसपास 


क्यूं न थोड़ी देर को ये थैला उसके घर रखूं 
दोस्त की तबियत मैं पूछूं, इस को फिर आकर मैं लूं’ 


सोच कर ये, मुल्ला साहब हाथ में थैला लिये 
नाम था ’मतलूब’ जिसका, उसके घर को चल दिये 


जब वो पहुंचे उस के घर, देखा कि इक बत्तख़ भी थी 
खाना उसको देने में मसरूफ़ थे मतलूब जी 


बोले मुल्ला, "ऐ मियां, इक महरबानी कीजिये 
ये मेरा चावल का थैला. देर कुछ रख लीजिये" 


"ठीक है" मतलूब ने कह कर, वो थैला रख लिया 
लेकिन अब वो क्या करेगा, था न मुल्ला को पता 


दोस्त से मिल कर जब आए मुल्ला साहब बाद में 
दे दिया मतलूब ने बस ख़ाली थैला हाथ में 


हो के हैरां, बोले मुल्ला "चावल इसके क्या हुए ?" 
बोला ये मतलूब "इस बत्तख़ ने सब वो खा लिये" 


सुन के ग़ुस्सा आ गया मुल्ला को उस बे-ईमान पे 
’किस क़दर धोका किया मुझ-से शरीफ़ इंसान से 


लेकिन इसको इस क़दर आसानी से बख़्शूं न मैं 
ले के चावल मैं रहूंगा, जो छिपाए घर में हैं’ 


सोच कर ये, मुल्ला साहब ने उठाई वो बतख़ 
जिसको पाला था मियां मतलूब ने माहों तलक 


डाल कर थैले में बत्तख़, मुल्ला जी जाने लगे 
देख ये, मतलूब साहब तैश में आने लगे 


चाल अपनी चलती देखी, मुल्ला जी ख़ुश हो गए 
रोक कर अपनी हंसी, मतलूब से कहने लगे 


"तैश में आते हो क्यूं ? बत्तख़ को घर ले जाता हूं 
पेट इसका काट के कुछ देर में ले आता हूं 


अपने चावल ले के वापस, पेट इसका दूंगा सिल 
मुझ को मेरे चावल, और बत्तख़ तुम्हें जाएगी मिल" 


देख कर हुशियारी मुल्ला की, हुआ मतलूब चुप 
क्या करे क्या ना करे, उसको न सूझा और कुछ 


बोला मुल्ला से "मियां, तुम एक लम्हे को रुको 
तुम को चावल मैं अभी देता हूं, बस इतना करो 


मेरी बत्तख़ ले न जाओ, मैंने की थी दिल्लगी 
एक बत्तख़ दो किलो चावल तो खा सकती नहीं" 


कह के ये मतलूब ने, चावल उन्हें लौटा दिये 
ले के थैला चावलों का, मुल्ला ख़ुश-ख़ुश चल दिये 

सच कहा है ये किसी ने "मुश्किलों के वक़्त तुम 
अक़्ल से सोचो, न होने दो हवास-ओ-होश गुम 

देखना फिर, मुश्किलें आसान सब हो जाएंगी 
फिर सताने तुम को, काफ़ी दिन तलक न आएंगी" 
---मुईन शमसी

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