रविवार, 14 अक्तूबर 2012

अब्र-ए-रहमत (Abr-e-rahmat) ('गर्भनाल' पत्रिका के अक्तूबर २०१२ अंक में प्रकाशित)


अब्र-ए-रहमत तू झूम-झूम के आ 
आसमानों को चूम-चूम के आ 


कब से सूखी पड़ी है यह धरती 
प्यास अब तो तू इसकी आ के बुझा 


खेत-खलिहान तर-ब-तर होंगे 
अपनी बूंदें अगर तू देगा गिरा


बूंद बन जाएगी खरा मोती 
सीप मुंह अपना गर रखेगी खुला 


फ़स्ल ’शमसी’ की लहलहाएगी 
फिर न शिकवा कोई, न कोई गिला । 

---मुईन शमसी 

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 Abr-e-rahmat tu jhoom-jhoom ke aa 
aasmaano ko choom-choom ke aa 


kab se sookhi padi hai ye dharti 
pyaas ab to tu iski aa ke bujha 


khet-khalihaan tar-ba-tar honge 
apni boondeN agar tu dega gira 


boond ban jaaegi khara moti 
seep munh apna gar rakhegi khula 


fasl 'shamsi' ki lehlahaaegi 
phir na shikwa koi, na koi gila. 

---Moin Shamsi


रविवार, 7 अक्तूबर 2012

"गर्भनाल" पत्रिका के अक्टूबर २०१२ अंक में प्रकाशित ग़ज़ल : लम्स



याद मुझे अक्सर आता है लम्स तुम्हारे होटों का 
ख़्वाब में आकर तड़पाता है लम्स तुम्हारे होटों का 

यादें धुंधला चुकी हैं यों तो साथ गुज़ारे लम्हों की
साफ़ है रोज़-ए-रौशन सा वो लम्स तुम्हारे होटों का 

कोशिश सदहा की पर लम्हे भर को भी ना भूल सके
दिल पे यों हो गया है चस्पां लम्स तुम्हारे होटों का 

जाम तुम्हारी नज़रों से दिन-रात पिया करते थे हम
लेकिन बस इक बार मिला वो लम्स तुम्हारे होटों का 

जुदा हुए थे जब तुम हसरत तब से ये है ’शमसी’ की
काश दुबारा मिल जाए वो लम्स तुम्हारे होटों का
---मुईन शमसी

शब्दार्थ :
लम्स = स्पर्श
होटों = होठों
रोज़-ए-रौशन = उजाले से भरा दिन
सदहा = सौ बार
चस्पां = चिपक जाना
हसरत = अभिलाषा