सोमवार, 2 मई 2011

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश

Rabbit and Tortoise story in hindi | Poem - कछुआ और ख़रगोश 

था किसी दरिया किनारे, इक घना जंगल कभी,, 
जानवर बेहद वहां थे चैन से रहते सभी । 

 उस घने जंगल के अंदर रहता इक ख़रगोश था,,
 बर्क़-रफ़्तारी के मद में अपनी वो मदहोश था ।

 सोचता ख़रगोश "कितना तेज़ हूं मैं दौड़ता,, 
जब मैं दौड़ूं, सबको पीछे जाता हूं मैं छोड़ता ।

 मुझसे ज़्यादा तेज़ कोई दौड़ सकता ही नहीं,, 
संग मेरे दौड़ ले वो, जिसको ना आए यक़ीं ।"

 एक दिन मग़रूर होके सबसे वो कहता फिरा,, 
"मेरे जैसा तेज़ दौड़े, है कोई ना दूसरा ।" 

 सर हिलाया सब ने उसकी बात सुन, अस्बात में,,
 दम न कछुए को लगा लेकिन कोई इस बात में ।

 बोला वो ख़रगोश से "बिल्कुल ग़लत कहते हो तुम,, 
जानते कुछ हो नहीं, बस ख़ुद में ही रहते हो गुम । 

 जानवर हैं और भी, जो तुमसे ज़्यादा तेज़ हैं,, 
बर्क़-रफ़्तारी की ताक़त से बड़े लबरेज़ हैं ।"

 इक सुनी ना लेकिन उस ख़रगोश ने कछुए की बात,,
 हो गई उनमें बहस, उट्ठे भड़क उनके जज़बात ।

 बढ़ गई जब बात ज़्यादा, कछुआ बोला जोश में,,
 "ना ग़ुरूर इतना करो, आओ मियां तुम होश में । 

 ना मचाओ शोर नाहक़, एक दिन ऐसा करो,, 
तुम को तो मैं ही हरा दूं, संग मेरे दौड़ लो ।" 

 बात कछुए की सुनी तो ज़ोर से हंसने लगा,,
 हंसते-हंसते कछुए से ख़रगोश ये कहने लगा :

 "मुझसे ना जीतेगा नादां, क्या तेरी औक़ात है !,, 
दिन कोई कर ले मुक़र्रर, बाज़ी मेरे हाथ है ।" 

 बोला कछुआ दिल में, ’उस दिन ही पता चल जाएगा,,
 दौड़ूंगा जब संग तेरे, जीत तू ना पाएगा ।’ 

 अल-ग़रज़ जुम्मे के दिन को दौड़ होना तय हुई,, 
’जीतेगा ख़रगोश ही’ ये सोचता था हर कोई । 

 आया दिन जब दौड़ का तो हो गए सब ही जमा,,
 इक अनोखी दौड़ का लेना सभी को था मज़ा । 

 फ़ैसला करने की ख़ातिर हाथी बुलवाया गया,, 
दौड़ेंगे दोनों कहां तक, ये भी तय पाया गया ।

 इब्तिदा फिर दौड़ की वक़्त-ए-मुक़र्रर पर हुई,, 
इल्म ना ख़रगोश को था, उसकी क़िस्मत है सोई ।

 यूं तो इक लम्हे में ही ख़रगोश आगे हो गया,,
 हौले-हौले धीरे-धीरे कछुआ भी चलता रहा । 

 पहुंचा थोड़ी दूर तो ख़रगोश को आया ख़याल,,
 ’जीत जाए मुझ से ये कछुआ, नहीं इसकी मजाल !

 काफ़ी आगी आ गया हूं, क्यूं न मैं ऐसा करूं,, 
जब तलक पहुंचे यहां वो, तब तलक इक नींद लूं !’

 सोच कर ये बात, वो ख़रगोश साहब सो गए,, 
नींद में भी जीत के ख़्वाबों में ही वो खो गए । 

 कछुआ लेकिन था सुबुक-रफ़्तार, सो चलता गया,, 
राह में ख़रगोश को सोते हुए देखा किया । 

 रफ़्ता-रफ़्ता ख़ामुशी से कछुआ आगे बढ़ गया,, 
बेख़बर इस बात से ख़रगोश, सोता ही रहा ।

 नींद जब टूटी तो सोचा ’अब भी काफ़ी वक़्त है,, 
वास्ते कछुए के शायद दौड़ ये तो सख़्त है ।

 ख़ैर ! मुझ को क्या है मतलब ! मैं तो चल ही देता हूं,, 
जा के मंज़िल पे, फ़तह का तमग़ा ले ही लेता हूं ।’ 

 पहुंचा लेकिन जब वो मंज़िल पे, तो मायूसी हुई,, 
कछुए ने पहले पहुंच कर, दौड़ थी वो जीत ली । 

 कर ही क्या कर सकता था अब वो, बस यही सोचा किया,, 
’काश मैं सोता नहीं, तो दौड़ मैं ही जीतता ।’ 

 काम जो मुमकिन नहीं था, कछुए ने वो कर दिया,, 
मात दी ख़रगोश को, दिल उसका ग़म से भर दिया । 

 सच कहा है ये किसी ने, ’ना कभी करना ग़ुरूर,, 
और गर हो काम मुश्किल, कोशिशें करना ज़रूर ।

 एक दिन तुम भी यक़ीनन अपनी मंज़िल पाओगे,, 
हां हुए मग़रूर गर तुम, तो बहुत पछताओगे ।’ 
(कवि : मुईन शमसी) 
(इस रचना के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं । पूर्ण या आंशिक प्रयोग लेखक की अनुमति से ही किया जा सकता है )

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