गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़

Story in poem | Garden of the Giant | Urdu | Hindi | देओ का बाग़
दास्ताँ इक बाग़ की तुमको सुनाता हूँ मैं आज,,
था जहां चारों तरफ़ सब्ज़ा-ओ-हरियाली का राज ।

थे परिंदे चहचहाते डाल पे हर पेड़ की,,
बहती थी ठंडी हवा पेड़ों की शाख़ें छेड़ती ।

हर तरफ़ उड़ती फिरा करती थीं रंगीं तितलियां,,
भौंरे फूलों के रुख़ों पे करते थे अठखेलियां ।

खेलने को बाग़ में बच्चे भी आया करते थे,,
आ तो जाते, बाग़ के मालिक से लेकिन डरते थे ।

ख़ूब ही ऊधम किया करते रोज़ाना बाग़ में,,
थी भरी बेहद शरारत बच्चों के दिमाग़ में ।

मार के पत्थर दरख़्तों से वो फल थे तोड़ते,,
कूदते और फांदते थे, भागते और दौड़ते ।

बाग़ का मालिक था कौन, अब तुम को ये बतलाता  हूँ,,
लम्बे-चौड़े देओ से बच्चो तुम्हें मिलवाता हूँ 

ये है मालिक बाग़ का, ये बच्चो को धमकाता है,,
शक्ल इसकी देख के हर बच्चा भाग जाता है ।

दिन में भी ये देओ बच्चो सोता ही बस रहता था,,
शोर सुनके जाग जाता, दहाड़ कर ये कहता था :

"भाग जाओ भाग जाओ, इधर कभी ना फिर आना,,
तुम्हें पकड़कर बंद करूंगा, पानी मिलेगा ना दाना ।"

बच्चे डर कर भाग जाते, लेकिन फिर आ जाते थे,,
दिन में अगर इक बार न खेलें, चैन नहीं वो पाते थे ।

पाने को छुटकारा बच्चों से ये सोचा देओ ने,,
’कोई तरकीब ऐसी हो, बच्चे ना आएं खेलने ।’

देर तक सोचा किया वो, तब ये सूझा देओ को,,
’बाग़ के चारों तरफ़ इक ऊंची-सी दीवार हो ।

रास्ता ही दाख़िले का जब मिलेगा ना कोई,,
वो सभी शैतान बच्चे आ ना पाएंगे कभी ।’

ये ख़याल आते ही उसने मेमारों से बात की,,
कुछ दिनों में इक ऊंची दीवार वहां पे बन गई ।

दाख़िला बच्चों का सचमुच बाग़ में बंद हो गया,,
बे-फ़िकर होके वो देओ नींद गहरी सो गया ।

दिन गुज़रने देओ के कुछ इस तरह से अब लगे,,
जब भी दिल चाहे सो जाए, और जब चाहे जगे ।

वक़्त गुज़रा, बदला मौसम, आ गई हर सू बहार,,
हर कली पे, फूल और पेड़ों पे भी आया निखार ।

सब तरफ़ रौनक़ थी लेकिन बाग़ मुरझाया रहा,,
पेड़ भी सूखे रहे और फूल भी इक ना खिला ।

देखा जब ये देओ ने, मायूस बेहद हो गया,,
बाग़ के अच्छे दिनों की याद में वो खो गया ।

लाने को वापस हरियाली बाग़ की, वो क्या करे,,
कैसे रौनक़ फिर से आए देओ के इस बाग़ में ?

था ख़यालों में वो गुम, तरकीब उसको सूझी ये,,
’क्यूं न अपने बाग़ में बच्चों को वो फिर आने दे !’

सोच के ये उसने, खोला बाग़ के दरवाज़े को,,
और बच्चों को सदा दी, "अंदर आ कर खेल लो !"

पहले तो बच्चे डरे सुन के सदा ये देओ की,,
डरते-डरते एक बच्चे ने ही ख़ुद से पहल की ।

चल पड़े बच्चे सब उसके पीछे-पीछे बाग़ में,,
मुस्कुराता देओ उनको देखता था सामने ।

बाग़ में जैसे ही बच्चों के पड़े नन्हें क़दम,,
हो गया जैसे करिश्मा बाग़ में बस एकदम ।

पेड़ जो सूखे थे वो सब हो गए बिल्कुल हरे,,
खिल उठे सब फूल, पंछी गीत भी गाने लगे ।

बाग़ में आईं बहारें, हर तरफ़ रौनक़ हुई,,
देओ ने देखा जो ये, उसको ख़ुशी बेहद हुई ।

कर लिया ख़ुद से तहैय्या, "अब न रोकूंगा इन्हें,,
इनके दम से ही है रौनक़, इनको दूंगा खेलने ।"

तब से लेकर आज तक बच्चे वहां हैं खेलते,,
देओ अब होता है बेहद ख़ुश सभी को देख के ।
( Poet : मुईन शमसी ) 

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