बुधवार, 22 सितंबर 2010

दिवस वही फिर आए

(ये रचना "एक प्रतिभागी की व्यथा-कथा" का अगला भाग है) 


 दिवस वही फिर आए । 

फिर से वहीं पे जमा हुए हम, फिर बैठे गर्दन को झुकाए । 

दिवस वही फिर आए ।


शुतुरमुर्ग सी ऊँची गर्दन करके सबकी सुनते, 

वक्ता कभी बनेंगे हम भी, ऐसे सपने बुनते, 

संवादों की भीड़ से अपनी ख़ातिर शब्द हैं चुनते, 

हर पल हैं ऐलर्ट जाने कब ’क्यू’ देना पड़ जाए ! 

क्योंकि दिवस वही फिर आए ।


फिर से मिले हैं पैन, पैड और फिर से बढ़िया खाना, 

फिर से सुबह जल्दी आना है देर रात है जाना, 

फिर से वही घोड़े की भाँति मुन्डी को है हिलाना, 

सब कुछ मिला है किन्तु पुनः डायलाग्स नहीं मिल पाए । 

भईया दिवस वही फिर आए ।


वक्ता को फर्रे दिखलाते, पैड पे यों ही पैन फिराते, 

कन्टीन्युटी के लिये ग्लास में बार-बार पानी भरवाते, 

मेज़ पे टहल रही मक्खी को फूंक मार कर दूर भगाते, 

डायरेक्टर ने ’सुधीजनों’ को यही काम बतलाए । 

मैडम दिवस वही फिर आए ।


विनती करते हैं ये रब से, अगले वर्ष ये शूटिंग फिर हो, 

यही ओखली मिले हमें फिर, फिर से इसमें अपना सिर हो, 

ख़ास तौर से लिखी हुई स्क्रिप्ट ’हमारी’ ख़ातिर हो, 

वक्ता का पद मिले अपुन को, अपुन ख़ूब इतराए । 

रब्बा दिवस वही फिर आए । यारो दिवस वही फिर आए । 

लोगो दिवस वही फिर आए । 

To listen please visit : 

https://youtu.be/I5yYp0X3qYk

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

If you want to ask anything related to Urdu and Hindi, you are welcome.