मंगलवार, 28 सितंबर 2010

बाल-कविता | Hindu Muslim Bhai Bhai | Poem

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई ।

बहकावे में आ जाते हैं, हम में है बस यही बुराई ।

अब नहीं बहकेंगे हम भईया, हम ने है ये क़सम उठाई ।

मिलजुल कर हम सदा रहेंगे, हमें नहीं करनी है लड़ाई ।

देश करेगा ख़ूब तरक़्क़ी, हर घर से आवाज़ ये आई । 

(Poet : Moin Shamsi) 

(All rights are reserved)

To listen this poem in a sweet voice, visit : 

https://youtu.be/JdYUL4fcnEE 

सोमवार, 27 सितंबर 2010

तुम चले क्यों गए | A song written by MOIN SHAMSI | Tm Chale Kyon Gaye

तुम चले क्यों गये

मुझको रस्ता दिखा के, मेरी मन्ज़िल बता के तुम चले क्यों गये

तुमने जीने का अन्दाज़ मुझको दिया

ज़िन्दगी का नया साज़ मुझको दिया

मैं तो मायूस ही हो गया था, मगर

इक भरोसा-ए-परवाज़ मुझको दिया।

फिर कहो तो भला

मेरी क्या थी ख़ता

मेरे दिल में समा के, मुझे अपना बना के ,तुम चले क्यों गये

साथ तुम थे तो इक हौसला था जवाँ

जोश रग-रग में लेता था अंगड़ाइयाँ

मन उमंगों से लबरेज़ था उन दिनों

मिट चुका था मेरे ग़म का नामो-निशाँ।

फिर ये कैसा सितम

क्यों हुए बेरहम

दर्द दिल में उठा के, मुझे ऐसे रुला के तुम चले क्यों गये

तुम चले क्यों गये

तुम चले क्यों गये?

शब्दार्थ: परवाज़ = उड़ान रग-रग = नस-नस लबरेज़ = भरा हुआ 

इस रचना को सुनना चाहें, तो इस लिंक पर पधारें : 

https://youtu.be/AhYHyOTzMSw

( मेरी इस रचना के सभी अधिकार मेरे पास हैं : मुईन शम्सी ) 

रविवार, 26 सितंबर 2010

Dil ki shayari - "वर्ल्ड हार्ट डे" के अवसर पर

कोई भी बात दिल से न अपने लगाइये, 

अब तो ख़ुद अपने दिल से भी कुछ दिल लगाइये ।


दिल के मुआमले न कभी दिल पे लीजिये, 

दिल टूट भी गया है तो फिर दिल लगाइये ।


दिल जल रहा हो गर तो जलन दूर कीजिये, 

दिलबर नया तलाशिये और दिल लगाइये ।


तस्कीन-ए-दिल की चाह में मिलता है दर्द-ए-दिल, 

दिलफेंक दिलरुबा से नहीं दिल लगाइये ।


दिल हारने की बात तो दिल को दुखाएगी, 

दिल जीतने की सोच के ही दिल लगाइये ।


बे-दिल, न मुर्दा-दिल, न ही संगदिल, न तंगदिल, 

बुज़दिल नहीं हैं आप तो फिर दिल लगाइये ।


’शम्सी’ के जैसा ना कोई दिलदार जब मिले, 

क्या ख़ाक दिल चुराइये, क्या दिल लगाइये ! 

इस रचना को सुनना चाहें, तो इस लिंक पर पधारें : 

https://youtu.be/RoQU0FcCTnw 

( मेरी इस रचना के सभी अधिकार मेरे पास हैं : मुईन शम्सी ) 


बुधवार, 22 सितंबर 2010

दिवस वही फिर आए

(ये रचना "एक प्रतिभागी की व्यथा-कथा" का अगला भाग है) 


 दिवस वही फिर आए । 

फिर से वहीं पे जमा हुए हम, फिर बैठे गर्दन को झुकाए । 

दिवस वही फिर आए ।


शुतुरमुर्ग सी ऊँची गर्दन करके सबकी सुनते, 

वक्ता कभी बनेंगे हम भी, ऐसे सपने बुनते, 

संवादों की भीड़ से अपनी ख़ातिर शब्द हैं चुनते, 

हर पल हैं ऐलर्ट जाने कब ’क्यू’ देना पड़ जाए ! 

क्योंकि दिवस वही फिर आए ।


फिर से मिले हैं पैन, पैड और फिर से बढ़िया खाना, 

फिर से सुबह जल्दी आना है देर रात है जाना, 

फिर से वही घोड़े की भाँति मुन्डी को है हिलाना, 

सब कुछ मिला है किन्तु पुनः डायलाग्स नहीं मिल पाए । 

भईया दिवस वही फिर आए ।


वक्ता को फर्रे दिखलाते, पैड पे यों ही पैन फिराते, 

कन्टीन्युटी के लिये ग्लास में बार-बार पानी भरवाते, 

मेज़ पे टहल रही मक्खी को फूंक मार कर दूर भगाते, 

डायरेक्टर ने ’सुधीजनों’ को यही काम बतलाए । 

मैडम दिवस वही फिर आए ।


विनती करते हैं ये रब से, अगले वर्ष ये शूटिंग फिर हो, 

यही ओखली मिले हमें फिर, फिर से इसमें अपना सिर हो, 

ख़ास तौर से लिखी हुई स्क्रिप्ट ’हमारी’ ख़ातिर हो, 

वक्ता का पद मिले अपुन को, अपुन ख़ूब इतराए । 

रब्बा दिवस वही फिर आए । यारो दिवस वही फिर आए । 

लोगो दिवस वही फिर आए । 

To listen please visit : 

https://youtu.be/I5yYp0X3qYk